Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
व्यक्ति या पदार्थ की कारण कोटि में आ जाते हैं, जो उसकी उत्पत्ति या निर्माण में बाधा डाल सकते थे, किन्तु उन्होंने विघ्न उपस्थित नहीं किया । व्यक्ति की तरह समाज भी एक प्रकार का सम्पुञ्जन है, जिसका एक इकाई के रूप में प्राज्ञप्तिक या व्यावहारिक अस्तित्व है । व्यक्ति और समाज परस्पर एक दूसरे के अधिपति-प्रत्यय हैं । यह अन्योऽन्याधिपतित्व या परम्पराश्रयता ही इनके बीच का बौद्ध दृष्टि से सम्बन्ध कहा जा सकता है । मेरे विचार में यही वह स्थल है, जहाँ से आधुनिक समाजशास्त्रियों को व्यक्ति, समाज और उनके सम्बन्ध में चिन्तन की प्रभूत बौद्ध सामग्री या भारतीय दार्शनिक सामग्री उपलब्ध हो सकती है । युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिक एवं विज्ञानवादी
बौद्ध दार्शनिक समस्त वस्तुओं का विभाजन स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण में भी करते हैं । स्वलक्षण वह है जो कोई न कोई अर्थक्रिया करता है । सामान्यलक्षण अर्थक्रिया करने में असमर्थ होता है । इनके अनुसार स्वलक्षण ही परमार्थसत् है, वस्तु है, क्षणिक है एवं प्रत्यक्ष का विषय है, जब कि सामान्यलक्षण ऐसा नहीं होता है । इनके मत में यद्यपि पुद्गल द्रव्यसत् नहीं है, प्रज्ञप्तिसत् है, फिर भी अर्थक्रियाकारी तो है ही । फलतः अपनी विशिष्ट परिभाषा के अनुसार यह तार्किक परिणति होती है कि पुद्गल को भी इन्हें स्वलक्षण, वस्तु एवं परमार्थसत् मानना होगा। क्योंकि इनके अनुसार पदार्थ द्रव्यसत् हो या प्रज्ञप्तिसत्, जो अर्थक्रियाकारी होता है, वह स्वलक्षण, वस्तु और परमार्थसत् होता है । इन्हें पुद्गल को प्रत्यक्ष का विषय भी मानना होगा, क्योंकि स्वलक्षण प्रत्यक्ष का विषय भी होता है, किन्तु थोड़ा फर्क होगा । जो स्वलक्षण द्रव्यसत् होता है, वह तो प्रत्यक्ष का साक्षात् विषय होता है, किन्तु जो स्वलक्षण प्रज्ञप्तिसत् होता है, वह साक्षात् विषय नहीं, किन्तु सामर्थ्यतः प्रत्यक्ष का विषय होगा । जैसे भूतल का तो साक्षात् प्रत्यक्ष होता है, किन्तु वहाँ पर रहने वाला घट का अभाव उसका साक्षात् विषय नहीं होता, फिर भी प्रत्यक्ष के सामर्थ्य से घटाभाव बोधित हो जाता है, अतः वह सामर्थ्यतः प्रत्यक्ष का विषय कहलाता है, उसी तरह पञ्चस्कन्ध, जो द्रव्यतः स्वलक्षण हैं, वे प्रत्यक्ष के साक्षात् विषय होंगे तथा उनमें विद्यमान प्रज्ञप्तिसत् पुद्गल यद्यपि साक्षात् विषय नहीं होगा, फिर भी प्रत्यक्ष के सामर्थ्य से बोधित होने के कारण वह सामर्थ्यतः प्रत्यक्ष का विषय होगा । इस परिभाषा के अनुसार समाज की भी दार्शनिक स्थिति पुद्गल की ही भाँति होगी ।
माध्यमिक दृष्टिकोण
सुविदित है कि माध्यमिक निःस्वभावतावादी या शून्यतावादी होते हैं । इनके मत में किसी भी वस्तु की स्वभावसत्ता या पारमार्थिक सत्ता नहीं होती । सभी
परिसंवाद - २
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