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निवेदन
प्रातःस्मरणीय जैनाचार्य श्री १००८ विजयलक्ष्मणसूरीश्वर श्री महाराज के 'आत्मतत्त्व-विचार' का हिन्दी संस्करण आपके हाथो मे देते हमे अतीव हर्प हो रहा है। हिन्दी मे जैन-साहित्य वस्तुतः बहुत ही कम है। अतः निश्चय ही प्रस्तुत ग्रन्थ उस कमी के निवारण मे एक ठोस कदम के रूप मे सिद्ध होगा। ___आत्मतत्त्व-विचार के गुजराती-संस्करण का पाठक-वृन्द ने कैसा स्वागत किया, यह इसी बात से स्पष्ट है कि, अत्यल्पकाल मे हमे उसके दो संस्करण निकालने पड़े।
गुजराती-संस्करण के प्रकाशन के बाद विद्वत्-समाज ने उसका अंग्रेजी-संस्करण प्रस्तुत करने का प्रस्ताव रखा ताकि भारतीय संस्कृति में रुचि रखनेवाले विदेशी तथा देशी विद्वान परम गूढ़ कर्म-दर्शन से परिचय प्राप्त कर सकें। पुस्तक प्रेस में जा चुकी है और यथाशीघ्र ही हम उसे भी पाठको को प्रस्तुत कर सकेंगे। ___ आत्मतत्त्व-विचार के संग्राहक पूज्य पंन्यास जी कीर्तिविजय गणिजी महाराज ने आचार्यश्री की वाणी को इस रूप मे संग्रह करके न केवल वाणी को अमरता प्रदान की है; वरन् जिज्ञासु पाठको को उसे उपलब्ध कराकर जैन-जगत का बड़ा हित किया है। आपकी साहित्य-सेवा इसी बात से स्पष्ट है कि, अब तक आपकी पुस्तको की लगभग २ लाख प्रतियाँ पाठकवृन्द के हाथो मे पहुंच चुकी हैं और गुणी जन ने उसे बड़े आदर तथा स्नेह से स्वीकार करके पूज्य पंन्यास जी के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है।
दूर छपाई-व्यवस्था के कारण यदि मुद्रण-दोष रह गये हों तो आशा है सुज्ञ पाठक क्षमा करेंगे ।
-प्रकाशक