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वारह
जैनाचार्य श्री विजयलक्ष्मण सूरीश्वरजी की यह कृति वस्तुतः कर्म-ग्रन्थों की कुञ्जी है और समस्त प्राचीन - अर्वाचीन कर्म-दर्शनसम्बन्धी ग्रन्थो का सार है । यह ग्रन्थ न केवल जिज्ञासु वर्ग को कर्म-दर्शन का परिचय प्राप्त कराने में समर्थ है बल्कि विद्वत्वर्ग की शंकाओं का समाधान करने तथा शास्त्रीय और परम्परागत मान्यताओ को स्पष्ट करने मे भी समर्थ है ।
जैनाचार्य जितने बड़े विद्वान हैं, उतने ही योगी भी । आपने सूरिमंत्र के पाँचो पीठ सिद्ध किये हैं । प्रथम और द्वितीय पीठ आपने रोहिडा ( राजस्थान ) मे सिद्ध किया, तीसरा और चौथा पीठ अँधेरी (बम्बई ) मे सिद्ध किया और पाँचवा पीठ महाराष्ट्र के निपाणी के चातुर्मास मे आपने सिद्ध किया । इसके अतिरिक्त भी आपने कई साधना की है ।
आचार्यश्री की व्याख्यान - शैली के सम्बन्ध मे तो कुछ कहना ही नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ ही इस बात का प्रमाण है कि, वे क्लिष्ट से क्लिष्ट विषय को कितने रोचक ढंग से प्रस्तुत करने मे
समर्थ हैं ।
मकरसंक्रान्ति, २०१६ वि० दफ्तरी बाडी,
चिंचोली, मलाड, बम्बई ६४
ज्ञानचन्द्र ( विद्याविनोद )