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विवेचक है, शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता और (अपने किये) कर्मों के फल का भोक्ता है। वह जीव चैतन्य लक्षणवाला है।। ___एक बार गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा-'जीवे णं भंते किं अत्तकडे दुःखे, परकडे दुःखे, तदुभय कडे दुःखे ?" इस पर भगवान् ने उत्तर दिया-'गोयमा ! अत्तकडे दुःखे, नो परकडे दुःखे, नो तदुभय कडे दुःखे।" (हे गौतम ! दुःख स्वयंकृत है, वह परकृत नही है और स्व-पर-उभय कृत नहीं है।)
सभी आस्तिक दर्शन जीव के स्वकर्म फल भोगने की बात किसी-न-किसी रूप मे स्वीकार करते है, पर कर्म-दर्शन का जैसा विशद् विस्तृत और शृखलाबद्ध विवेचन जैन-शास्त्रो मे है, वैसा किसी भी अन्य तीर्थिक-शास्त्र में नहीं है।
जैन-शास्त्र कर्म ८ मानते है । प्रथम कर्मग्रन्थ मे जैनाचार्य देवेन्द्रसूरि ने उनकी गणना इस प्रकार करायी है
इह नाण दंसणावरण, चेय मोहा उ नाम गोयाणि । विग्धं . ............
(१) ज्ञानावरणीय (२) दर्शनावरणीय (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोत्र और (८) अन्तराय ये आठ कर्म है। इन आठ कर्मा की १५८ उत्तर प्रकृतियाँ हैं। _ इन कर्मों का वन्धन जीव किन परिस्थितियों में करता है, वाँधे हुए कर्म कितने काल मे उदय मे आते है, उनका फल क्या होता है, कैसे खप सकते हैं अथवा कैसे ढीले बंधते है, आदि अनेक ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर जैन-शास्त्रो-सरीखा विस्तार से कहीं अन्यत्र नहीं मिलनेवाला है।
कर्म-सम्बन्धी यह विवेचन जैन-साहित्य में कुछ नया नही है। इस सम्बन्ध मे कितने ही सन्दर्भ ठाणांगसूत्र, समवायांग