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भाठ
गोत्र से उन्हें सम्बोधित करके, पहले उनकी शंका बतायी और फिर उसका समाधान किया । इसका बड़ा विस्तृत वर्णन विशेषावश्यक भाष्य सटीक ( गाथा १५४९ - १६०५; १६४५ - १६८६ ) मे उपलब्ध | 'जीव है और वह शरीर से सर्वथा भिन्न है', इस सम्बन्ध में जैन - मान्यता का विवेचन जिज्ञासु पाठक वहाँ देख सकते हैं । प्रज्ञापनासूत्र मे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तथा वायुकाय, तेङकाय, वनस्पतिकाय,
काय आदि अनेक रूपों से जीव का विवेचन परिचय उपलब्ध है, जो प्राणिशास्त्र की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हुए भी अभी तक आधुनिक विद्वानो की दृष्टि से अछूता छूटा है ।
अब प्रश्न है कि, यदि जीव है और वह शरीर से भिन्न है, तो उसका लक्षण क्या है । उत्तराध्ययनसूत्र ( अ० २८, गा० ११ ) मे इस प्रन का उत्तर एक ही गाथा मे दिया गया है
नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उवओोगो य, एयं जीवस्ल लक्खणं ॥
- अर्थात् १ ज्ञान, २ दर्शन, ३ चारित्र, ४ तप, ५ वीर्य, ६ उपयोग ये ६ जीव के लक्षण हैं ।
जीव के सम्बन्ध मे हरिभद्राचार्य ने 'षड्दर्शन- समुच्चय' ( इलो० ४८ ) मे कहा है
तत्र ज्ञानादि धर्मेभ्यो,
भिन्नाभिन्न विवृत्तिमान् ।
कर्त्ता शुभाशुभं कर्म,
भोक्ता कर्म फलं तथा ॥
वह जीव ज्ञानादि धर्मोवाला है; भिन्न-अभिन्न का