Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
वे गुणाभास ही रहेंगे । अभिप्राय यह हुआ कि वे सब श्रद्धा आदि गुण स्वानुभूतिके संयुक्त होनेपर सम्यक्त्वरूप और उसके विना मिथ्या श्रद्धा आदिके समान वे सम्यक्त्व न होकर तदाभास ही होते हैं १ । स्वानुभूतिके विना जो श्रुतमात्रके आलम्बनसे श्रद्धा होती है वह तत्त्वार्थसे सम्बद्ध होनेपर भी यथार्थ श्रद्धा नहीं है, क्योंकि, वहां तत्त्वार्थकी उपलब्धि नहीं है। इसका भी कारण यह है कि वह लब्धि पागल पुरुषकी लब्धिके समान सत् और असत् पदार्थों में विशेषतासे रहित होती है। अतएव वह पदार्थक अभावमें होनेवाली अर्थोपलब्धिके ही समान वस्तुतः उपलब्धि नहीं है। इसीलिये श्रद्धाको जो सम्यक्त्वका लक्षण निर्दिष्ट किया जाता है उसे पंकज (कीचडसे उत्पन्न कमल) आदिके समान यौगिक रूढिके वश समझना चाहिये । इस कारण स्वानुभूतिसे संयुक्त श्रद्धाको जो सम्यक्त्व कहा गया है वह उचित ही है२ ।
यह सम्यग्दर्शन, संज्ञी, पंचेन्द्रिय व पर्याप्त जीवोंमें किसी भी जीवके हो सकता है- उसके लिये कुल एवं जाति आदिका कोई बन्धन नहीं है। यही कारण है जो स्वामी समन्तभद्राचार्यने सम्यग्दर्शनसे सहित चाण्डालको भी आराधनीय बतलाया है३ । सम्यक्त्वकी महिमा विलक्षण १. स्वानुभूतिसनाथाश्चेत् सन्ति श्रद्धादयो गुणाः ।
स्वानुभूतिविनाभासा नार्थाच्छुद्धादयो गुणाः ॥ तत्स्याच्छद्धादय सर्वे सम्यक्त्वं स्वानुभूतिमत् । । न सम्यक्त्वं तदाभासा मिथ्याश्रद्धादिवत् स्वतः ॥
. पंचाध्यायी २, ४१५-१६ २. विना स्वात्मानुभूति तु या श्रद्धा श्रुतमात्रतः । तत्त्वार्थानुगताप्यर्थाच्छ्रद्धा नानुपलब्धितः ॥ लब्धिः स्यादविशेषाद्वा सदसतोरुन्मत्तवत । नोपलब्धिरिहार्थात् सा तच्छेषानुपलब्धिवत् ॥ ततोऽस्ति यौगिकी रूढिः श्रद्धा सम्यक्त्वलक्षणम् । अर्थाद प्यविरुद्धं स्यात् सूक्तं स्वात्मानुभूतिमत् ॥
पंचाध्यायी २, ४२९-२३. ३. सम्यग्दर्शनसंपन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरोजसम् ॥ र. श्रा. २८.