Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
प्रत्यय में ' अहम्' पदके द्वारा जिसका बोध होता है वह शरीर तो कुछ हो नहीं सकता है, क्योंकि, जब शरीरमेंसे वह अदृश्य शक्ति (चेतना) निकल जाती है तब वह निष्क्रिय हो जाता है । उस समय फिर किसी भी प्रकारका बोध नहीं होता । तथा बालक और युवावस्था के अनुसार जो उसमें हीनाधिकता होती थी उसका होना तो दूर ही रहा, वह स्वयं सड-गलकर विकृत हो जाता है । इससे सिद्ध है कि उक्त शरीर के भीतर जो पूर्वोक्त प्रवृत्तियोंकी कारणभूत विशिष्ट शक्ति विद्यमान रहती है उसीका इस 'अहम्' पदके द्वारा बोध होता है और उसे ही आत्मा या जीव आदि शब्दोंसे कहा जाता है ।
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वह आत्मा अनादि कालसे कर्मसे सम्बद्ध रहता है । जिस प्रकार बीजसे अंकुर और उससे फिर बीज, इस प्रकार बीज और अंकुरकी परम्परा अनादि कालसे चली आ रही है उसी प्रकार रागद्वेषादि परिणामोंसे कर्मबन्ध और उस कर्मबन्धसे पुनः राग-द्वेषादि, इस प्रकार वह बन्धकी परम्परा भी अनादि कालसे चली आ रही है । इस तरह वह आत्मा स्वभावतः शुद्ध होकर भी संसार अवस्था में पर्यायी अपेक्षा मलिन हो रहा है । जिस प्रकार कोई कपडा स्वभावतः ( शक्तिकी अपेक्षा) स्वच्छ होकर भी यदि वर्तमानमें मलिन हो रहा है तो उसे सोडा - साबुन आदिके द्वारा स्वच्छ किया जाता है; इसी प्रकार आत्मा शक्तिकी अपेक्षा शुद्ध होकर भी चूंकि वर्तमान में शरीरादिसे संयुक्त होकर मलिन हो रहा है, इसीलिये उसे तपश्चरण आदिके द्वारा उक्त कर्ममलसे रहित करके शुद्ध किया जाता है । इसीका नाम मुक्ति है । यदि कोई मलिन भी कपडेको सर्वथा ( शक्ति के समान व्यक्ति से भी ) स्वच्छ ही समझता है तो फिर उसे स्वच्छ करने का वह प्रयत्न भी क्यों करेगा? नहीं करेगा। इसी प्रकार आत्माको सर्वथा ही शुद्ध माननेपर उसकी मुक्ति के लिये किया जानेवाला प्रयत्न - तप-संयमादि - व्यर्थ ठहरता है । अतएव जहां वह द्रव्यकी अपेक्षा शुद्ध है वहां वर्तमान अवस्थाकी अपेक्षा वह अशुद्ध भी है, ऐसा निश्चय करना चाहिये । मिथ्यात्व अविति, प्रमाद कषाय और योग; ये उसके बन्धके कारण तथा इनके विपरीत