Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
पुनः उसको
संयमको छोडनेवाला साधु अमृत पीकर वमन करनेवाले मूर्खके समान है आरम्भादि बाह्य शत्रुओंके समान रागद्वेषादि अभ्यन्तर शत्रुओं को भी नष्ट करना चाहिये
उन राग-द्वेषादिको जीतनेके लिये मनको आगमाभ्यास में लगाना चाहिये
आगमाभ्यास में मनको लगाकर कैसा विचार करना चाहिये आत्माका स्वरूप दिखलाकर ज्ञानभवनाके चिन्तनकी प्रेरणा ज्ञानभावनाका फल ज्ञान ( केवलज्ञान ) ही है, उसका अन्य फल खोजना अज्ञानता है
इस शास्त्ररूप अग्निमें पडकर भव्य तो मणिके समान विशुद्ध हो जाता है और अभव्य मलिन कोयला या भस्मके समान हो जाता है
ध्यान में पदार्थों के यथार्थ स्वरूपका विचार करते हुए रागद्वेषका परित्याग करना चाहिये
जीवके संसारपरिभ्रमण और मुक्तिप्राप्तिमें मथानीका
उदाहरण
राग-द्वेषसे कर्मबन्ध और उनके अभावसे मोक्ष होता है राग-द्वेषका बीजभूत मोह व्रणके समान है मित्र आदिके मरनेपर शोक करना योग्य नहीं है हानिके निमित्तसे होनेवाला शोक दुखका कारण है यथार्थ सुख व दुखका स्वरूप जन्म मरणका अविनाभावी है
तप और श्रुतका फल राग-द्वेषकी निवृत्ति है, न कि लाभ - पूजादि
स्वल्प भी विषयाभिलाषा अनर्थको उत्पन्न करनेवाली है, फिर उसका सेवन क्यों वार वार करता है बहिरात्माको छोडकर अन्तरात्मा और परमात्मा बन जानेकी प्रेरणा
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