Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 330
________________ २१७ -२३०] आशाशत्रुतॊपेक्षणीयः दृष्टार्थस्य न मे किमप्ययमिति ज्ञानावलेपादमुं नोपेक्षस्व जगत्त्रयंकडमरं निःशेषयाशाद्विषम् । पश्याम्भोनिधिमप्यगाधसलिलं बाबाध्यते वाडवः क्रोडीभूतविपक्षकस्य जगति प्रायेण शान्तिः कुतः ॥ २३०॥ गमान्मम न किंचित्कर्तु समर्थोऽयमित्याशा-शत्रो नोपेक्षा कर्तव्येति शिक्षा प्रयच्छन् दृष्टेत्याह-- दृष्टार्थस्य ज्ञातार्थस्य । न मे किमप्ययम्-- अयम् आशा-द्विट् न मे किमपि कर्तु समर्थः । अवलेपात् गर्वात् ।। जगत्त्रयकडमरं जगत्त्रयस्य एकम अद्वितीयं डमरं भयं क्षोभो वा यस्मात् । नि:शेषय स्फेटय । आशा-द्विषम् आशा-शत्रुम् । अगाधसलिलमपि। बाबाध्यते सातिशयेन बाधते । क्रोडीभूतविपक्षकस्य स्वीकृतशत्रोः ॥२३० ।। आशा-शत्रु निर्मूलयता विचार नहीं करता है कि यदि फसल अच्छी तैयार न हुई तो मुझे बीजकी हानि सहनी पडेगी, किन्तु इसके विपरीत वह साहस रखकर फलप्राप्तिकी आशासे ही उसे बोता है । उसी प्रकार जो समस्त बाह्य परिग्रहको छोडकर तपश्चरणको स्वीकार करता है उसे भी अधीर होकर कभी ऐसा विचार नहीं करना चाहिये कि जिस तपके फल (स्वर्ग-मोक्ष) की प्राप्तिकी आशासे में वर्तमान सुखको छोडकर उसे स्वीकार कर रहा हू' वह फल यदि न प्राप्त हुआ तो मुझे व्यर्थ ही कष्ट सहना पडेगा । किन्तु इसके विपरीत उसे यही निश्चय करना चाहिये कि तपका फल जो स्वर्ग-मोक्षकी प्राप्ति है वह मुझे प्राप्त होगा ही। तदनुसार उसे साहसके साथ उसकी प्रतीक्षा भी करनी चाहिये ॥ २२९ ॥ मैं पदार्थों के स्वरूपको जान चुका हूं, इसलिये यह आशारूप शत्रु मेरा कुछ बिगाड नहीं कर सकता है। इस प्रकार ज्ञानके अभिमानसे तू तीनों लोकोंमे अतिशय भयको उत्पन्न करनेवाले उस आशारूप शत्रुकी उपेक्षा न करके उसे निर्मल नष्ट कर दे। देखो, अथाह जलसे परिपूर्ण भी समुद्रको वाडवाग्नि अतिशय बाधा पहुंचाती है । ठीक है- जिसकी गोदमे (समीपमें) शत्रु स्थित है उसे भला संसारमें प्रायः शान्ति कहांसे प्राप्त हो सकती है ? अर्थात् नहीं प्राप्त हो सकती है ॥ २३० ।। जिसका हृदय स्नेह (राग)

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