Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-२६६] कीदृशो जीवः
२४३ अजातोऽनरोऽमूर्तः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः।।
देहमात्रो मलैर्मुक्तो गरवोवमचलः प्रभुः ॥ २६६ ॥ नाशादेव । शून्यं निर्वाणं प्रदीपनिर्वाणतुल्यम् । अन्यबौद्धः प्रकल्पितम् । उक्तं च--" दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वतिमभ्युपेतः स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥" स्वमते तु अन्यः शुभाशुभ रागादिभिर्वा शून्यं निर्वाणम् ॥ २६५ ॥ अजात इत्यादि । अजातः द्रव्यापेक्षया अनादि (दिः) मुक्तः सन् पुन: संसारे वा अनुत्पन्नः। अनश्वरः अनिबन्धन: (अनिधन:) द्रव्यापेक्षयैव अनश्वरो वा पर्यायापेक्षया विनश्वरः । अमत : रूपादिरहितः। कर्ता शुभाशुभकर्मणाम्, उत्तरोत्तरस्वपरिणतेर्वा जनकः । भोक्ता स्वकृतकर्मगुणोंका नाश मानते हैं । परन्तु उपर्युक्त प्रकारसे गुण और गुणी में सर्वथा . भेद मानना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर आत्मा स्वरूपतः ज्ञानादि गुणोंसे रहित होनेके कारण जड (अचेतन) सिद्ध होता है जो योग्य नहीं है । इसलिये आत्माको उक्त ज्ञानादि गुणोंसे अभिन्न मानना चाहिये । और जब वह आत्मा ज्ञानादि गुणोंसे अभिन्न सिद्ध है तब भला मुक्तावस्थामें उन ज्ञानादि गुणोंका नाश स्वीकार करनेसे आत्माका भी नाश क्यों न स्वीकार करना पडेगा? परन्तु वह बौद्धोंके समान वैशेषिकोंको इष्ट नहीं है । वैसी मुक्ति तो बौद्ध ही स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार तेलके समाप्त हो जानेपर विनष्ट हुआ दीपक न किसी दिशाको जाता है, न किसी विदिशाको जाता है, न पृथिवीमें जाता है;
और न आकाशमें भी जाता है, किन्तु वह केवल शान्तिको प्राप्त होता है। उसी प्रकार मुक्तिको प्राप्त हुआ जीव भी कहीं न जाकर केवल शान्तिकोशून्यताको-प्राप्त होता है । इस प्रकार उन्होंने जीवके निर्वाणको प्रदीपके निर्वाणके समान शून्यरूप माना है। अतएव गुण और - गुणीमें कथंचित् भेदाभेदको स्वीकार करना चाहिये, अन्यथा उपर्युक्त प्रकारसे बौद्धमतका प्रसंग दुनिवार होगा ।। २६५ ॥ आत्मा द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा जन्मसे और मरणसे भी रहित होकर अनादिनिधन है। वह शुद्ध स्वभावकी अपेक्षा अमूर्त होकर रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्शसे रहित है। वह व्यवहारकी अपेक्षा शुभ व अशुभ