Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 353
________________ २४० आत्मानुशासनम् .. [ श्लो० २६२ कुर्याद्यः शुभमेव सोऽप्यभिमतो यस्तूभयोच्छित्तये सर्वारम्भपरिग्रहग्रहपरित्यागी स वन्द्यः सताम् ॥२६२॥ सुखं दुःखं वा स्यादिह विहितकर्मोदयवशात् कुतः प्रीतिस्तापः कुत इति विकल्पाद्यदि भवेत् । शुभाशुभ विनाशाय । सर्वेत्यादि-सर्वे च ते आरम्भपरिग्रहाश्च त एव ग्रहा: तेषु वा आग्रहः आबन्धः तं परित्यजतीति एवंशीलस्तत्परित्यागी । २६२ ।। ननु सुखदु:खरूपकर्मफलमनुभवताम् अपरशुभेतरकर्मोत्पत्तेः कथमुभयोरिच्छत्तिरित्याह--- सुखमित्यादि । विहितकर्मोदयवशात् उपाजितकर्मोदयानुरोधात् । कर्मोपाधिजाः संसारिसुखादयो नात्मस्वभावा इत्यर्थ: । इति विकल्पात् पापकार्योको छोडकर केवल पुण्यकार्योंको ही करता है-वह भी अभीष्ट है-प्रशंसाके योग्य है । किन्तु जो विवेकी जीव उन दोनों (पुण्य-पाप) को ही नष्ट करनेके लिये समस्त आरम्भ व परिग्रहरूप पिशाचको छोडकर शुद्धोपयोगमें स्थित होता है वह तो सज्जन पुरुषोंके लिये वन्दनीय (पूज्य) है ॥२६२॥ संसारमें पूर्वकृत कर्षके उदयसे जो भी सुख अथवा दुख होता है उससे प्रीति क्यों और खेद भी क्यों, इस प्रकारके विचारसे यदि जीव उदासीन होता है-राग और द्वेषसे रहित होता हैतो उसका पुराना कर्म तो निर्जीर्ण होता है और नवीन कर्म निश्चयसे बन्धको प्राप्त नहीं होता है । ऐसी अवस्थामें यह संवर और निर्जरासे सहित जीव अतिशय निर्मल मणिके समान प्रकाशमान होता है-स्व और परको प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानसे सुशोभित होता है । विशेषार्थपूर्वमें जिस शुभ अथवा अशुभ कर्मका बन्ध किया है उसका उदय आनेपर सुख अथवा दुख. प्राणीको प्राप्त होता ही है । किंतु जो अज्ञानी जीव है वह चूंकि पुण्यके फलस्वरूप सुखमें तो अनुराग करता है और पापके फलभूत दुखमें द्वेष करता है, इसीलिये उसके पुनः नवीन कर्मोंका बन्ध होता है । परन्तु जो जीव विवेकी है वह यह विचार करता है कि . पूर्वकृत पुण्यके उदयसे यह जो सुख प्राप्त हुआ है वह अस्थायी है-सदा

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