Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-२४९]
परपरिवादो रागादिजनकः
स्वान् दोषान् हन्तुमुधुक्तस्तपोभिरतिदुर्धरैः । तानेव पोषयत्यज्ञः परदोषकथाशनः ॥२४९॥
सैव कपाटं तेन संवृतिः पिधानं यस्य । पादसंभृति: गर्तापूरः । रन्ध्र छिद्रं दोषश्च । कुटिलैः सः रागादिभिश्च । विक्रियते दूष्यते । गृहाकृति: गृहस्यवाकृतिराकारो यस्य ।। २४८ ॥ तांश्च रागादिदोषान् निर्जेतुमुद्यत: परपरि वादैः पुष्टान् करोतीत्याह---- स्वानित्यादि । परदोष कथा एव अशनानि
आकारको धारण करनेवाला मुनिपद थोडे-से भी छिद्रको पाकर कुटिल राग-द्वेषादिरूप सर्पोके द्वारा विकृत कर दिया जाता है ॥ विशेषार्थमुनिपद एक प्रकारका घर है । मुनि जिन तीन गुप्तियोंको धारण करते हैं वे ही इस घरके किवाड हैं,धैर्य जो है वही इस घरको भित्ति है,तथा घर जहां दृढ नीवक आश्रित होता है वहां वह मुनिपद भी बुद्धिरूप नीवके आश्रित होता है । इस प्रकार मुनिपदमें घरकी समानताके होनेपर जिस दृढ किवाडों आदिसे संयुक्त भी घरमें यदि कहीं कोई छोटासा भी छिद्र रह जाता तो उसके द्वारा कुटिल सर्पादिक उसके भीतर प्रविष्ट होकर उसे भयानक बना देते हैं । इसी प्रकार उक्त घरके समान मुनिपदमें भी कहीं कोई छोटा-सा भी छिद्र (दोष) रहता है तो उक्त छिद्रके द्वारा उस मुनिपदमें भी उन विषैले साँके समान कुटिल रागद्वेषादि प्रवेश करके उस मुनिपदको भी नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं । अतएव मोक्षाभिलाषी साधुको यदि अज्ञानता या प्रमादसे कोई दोष उत्पन्न होता है तो उसे शीघ्र ही नष्ट कर देनेका प्रयत्न करना चाहिये ॥२४८।। जो साधु अतिशय दुष्कर तपोंके द्वारा अपने जिन दोषोंके नष्ट करने में उद्यत है वह अज्ञानतावश दूसरोंके दोषोंके कथन (परनिन्दा)रूप भोजनोंके द्वारा उन्हीं दोषोंको पुष्ट करता है ॥ विशेषार्थ-यदि कोई व्यक्ति अजी
र्णादि रोगोंको शांत करने के लिये औषधि तो लेता है,किंतु भोजन छोडता नहीं है-उसे वह बराबर चालू ही रखता है तो ऐसी अवस्थामें जिस प्रकार वे अजीर्णादि रोग कभी शांत नहीं हो सकते हैं उसी प्रकार जो साधु रागादि दोषोंको शान्त करनेकी इच्छासे घोर तपश्चरण तो करता