Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 347
________________ २३४ आत्मानुशासनम् [ श्लो० २५२ अपि सुतपसामाशावल्लीशिखा तरुणायते भवति हि मनोमूले यावन्ममत्वजलार्द्रता । इति कृतधियः कृच्छ्रारम्भैश्चरन्ति निरन्तरं चिरपरिचिते देहेऽप्यस्मिन्नतीव गतस्पृहाः ॥ २५२ ॥ त्तरविज्ञानात् उत्तरोत्तर प्रकृष्टविवेकात् । योगिनः तत्तत् अज्ञानचेष्टितमिति प्रतिभासते ।। २५१ ।। विशिष्टज्ञान परिणतिरहितानाम् उत्कृष्टतपोयुक्तानामपि शरीरादौ ममेदं बुद्धिसद्भावे किं भवतीत्याह--- अपीत्यादि । केषाम् । सुतपसामपि । तरुणायते तरुणमिवात्मानमाचरति । इति हेतोः । कृतधियः विवेकिनः कृच्छारम्भैः कष्टसाध्यैः त्रिकालादिभिः । चिरपरिचिते देहेऽपि न केवलं पुत्रकलत्रादौ ।। २५२ ।। अमुमेवार्थं दृष्टान्तद्वारेण समर्थयहोने से अज्ञानतापूर्ण किया गया प्रतीत होता है ॥ विशेषार्थ -- अभिप्राय यह है कि जबतक विवेकबुद्धिका उदय नहीं होता है तबतक ही व्यक्ति दूसरेकी निन्दा और आत्मप्रशंसा आदिरूप हीन आचरण करता है । किन्तु आगे ज्यों ज्यों उसका विवेक बढता है त्यों त्यों उसे वह अपना पूर्व आचरण अज्ञानतावश किया गया स्पष्ट प्रतीत होने लगता है । इसीलिये तब वह दूसरोंके दोषोंपर ध्यान न देकर अपने आत्मगुणों के विकासका ही अधिकाधिक प्रयत्न करता है ।। २५१ ।। जबतक मनरूपी अडके भीतर ममत्वरूप जलसे निर्मित गीलापन रहता है तबतक महातपस्वियोंकी भी आशारूप बेलकी शिखा जवान- सी रहती है । इसीलिये विवेकी जीव चिर कालसे परिचित इस शरीर में भी अत्यन्त निःस्पृह होकरसुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदिमें समान होकर - निरन्तर कष्टकारक आरम्भों में- ग्रीष्मादि ऋतुओंके अनुसार पर्वतकी शिला, वृक्षमूल एवं नदीतट आदिके ऊपर स्थित होकर किये जानेवाले ध्यानादि कार्योंमेंप्रवृत्त रहते हैं । विशेषार्थ -- जिस प्रकार वेलकी जडमें जबतक जलके सिंचनसे गीलापन रहता है तबतक वह अपनी जवानीमें रहती है- हरीभरी बनी रहती है, उसी प्रकार मनमें भी जबतक ममत्वभाव रहता है लबतक बडे बडे तपस्वियोंकी भी आशा ( विषयवांछा) तरुण रहती हैअतिशय प्रबल होती है । इसीलिये विवेकी जीव इस सत्यको जानकर अनादि कालसे साथ में रहनेवाले इस शरीर से भी जब अनुराग छोड देते

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