Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-२४५ ] बन्ध-मोक्षयोः क्रमः
२२९ अधिकः क्वचिदाश्लेषः क्वचिद्धीनः क्वचित्समः ।
क्वचिद्विश्लेष एवायं बन्धमोक्षक्रमो मतः ॥२४५॥ काष्ठास्पृशः प्रकर्ष प्राप्तस्य । दुर्बोधं महता कष्टेन बुध्यते । तदन्यदेव तत्कौशलम् अन्यदेव अपूर्वमेव । अप्राकृतम् अलौकिकम् ।।२४४॥ बन्धन-तद्विनाशयोर्थथासंभ वं क्रमं दर्शयन्नाह- अधिक इत्यादि । क्वचित् अभव्ये । अधिक: आश्लेष: कर्मबन्धः । क्वचित् आसन्नभव्ये । हीनः कर्मबन्धः । क्वचिद् दूरभव्यं । समः कर्मबन्ध: उदयकारणसद्भावात् । क्वचिदतीव आसन्नमुक्तिके । विश्लेष एव कर्मबन्धाभाव एवेति । नानात्मापेक्षयेदं व्याख्यानम् । एकात्मापेक्षयापि-- क्वचित् मिथ्यात्वादिगुणस्थाने अधिक: कर्मबन्धः । क्वचित् अविरतसम्यग्दृष्ट्यादौ हीन: कर्मबन्धः । क्वचिन्मिश्रगुणस्थाने समः कर्मबन्ध: । क्वचित्क्षीणक षायादौ विश्लेष एव ।। २४५ ॥ जाती हैं अतएव उन्हींके निमित्तसे अब उक्त बन्धका विनाश-संवर और निर्जरा-होने लगती है । यह ज्ञान और वैराग्यका ही माहात्म्य है ॥२४४।। किसी जीवके अधिक कर्मबन्ध होता है, किसीके अल्प कर्म, बन्ध होता है,किसीके समान ही कर्मबन्ध होता है, और किसीके कर्मका बन्ध न होकर केवल उसकी निर्जरा ही होती है। यह बन्ध और मोक्षका क्रम माना गया है । विशेषार्थ-बन्ध और निर्जराकी हीनाधिकता परिणामोंके ऊपर निर्भर है। यथा-अभव्य जीवके परिणाम चंकि निरन्तर संक्लेशरूप रहते हैं, अतः उसके बन्ध अधिक और निर्जरा कम होती है । आसन्नभव्यके परिणाम निर्मल होनेसे उसके बन्ध कम और निर्जरा अधिक होती है । दूरभव्यके मध्यम जातिके. परिणाम होनेसे उसके बन्ध और निर्जरा दोनों समानरूपमें होते हैं। तथा जीवन्मुक्त अवस्थामें बन्धका अभाव होकर केवल निर्जरा ही होती है । यह बन्ध और निर्जराका क्रम नाना जीवोंकी अपेक्षासे है । यदि उसका विचार एक जीवकी अपेक्षासे करें तो वह इस प्रकारसे किया जा सकता हैमिथ्यात्व गुणस्थानमें बन्ध अधिक और निर्जरा कम होती है, अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंमें बन्ध कम और निर्जरा अधिक होती है, मिश्र गुणस्थानमें बंध और निर्जरा दोनों समानरूपमें होते हैं,तथा क्षीणकषायादि गुणस्थानोंमें बंधका-स्थिति व अनुभागबंधका-अभाव होकर केवल निर्जरा ही होती है । वहां जो बंध होता है वह एक मात्र साता वेदनीयका होता है, सो भी केवल प्रकृति और प्रदेशरूप ।।२४५॥ जिस