Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम् .. [लो० २४६यस्य पुण्यं च पापं च निष्फलं गलति स्वयम् । स योगी तस्य निर्वाणं न तस्य पुनरात्रवः ॥२४६॥ महातपस्तडागस्य संभृतस्य गुणाम्भसा। मर्यादापालिबन्धेऽल्पामप्युपेक्षिष्ट मा क्षतिम् ॥२४७॥ दृढगुप्तिकपाटसंवृतिभृतिभित्तिर्मतिपादसंभृतिः ।
यतिरल्पमपि प्रपद्य रन्धं कुटिलविक्रियते गृहाकृतिः ॥२४८॥ यस्य च कर्मणां स्वकार्यमकुर्वतामेव विश्लेषो भवति स एव योगीत्याह--- यस्येत्यादि । यस्य परमवीतरागस्य । निःफलं स्वकार्यम् अकुर्वत सत् । गलति उग्रतपःसामर्थ्यावृदयमानीय जीर्यते । न पुनरास्रवो न पुन: कर्मणामागनम्, संवर एव भवतीत्यर्थः ॥२४६।। स च संवरः प्रतिज्ञातव्रतप्रतिपालनाद्भवतीत्याह- महेत्यादि । महातप: पञ्चमहाप्रतानि । संभृतस्य पूर्णस्य । गुणाम्भसा सम्यग्दर्शनादिगुणजलेन । मर्यादा प्रतिज्ञा । उपेक्षिष्ट उपेक्षय ॥ २४७ ॥ क्षतिहेतवश्च भुनेरीदृशस्य एते भवन्तीत्याह- दृढेत्यादि । दृढा अविचला सा चासौ गुप्तिश्च वीतरागके पुण्य और पाप दोनों फलदानके विना स्वयं अविपाक निर्जरा स्वरूपसे निर्जीणं होते हैं वह योगी कहा जाता है और उसके कर्मोका मोक्ष होता है,किन्तु आस्रव नहीं होता है ॥२४६।। हे साधो ! गुणरूप जलसे परिपूर्ण महातपरूप तालाबके प्रतिज्ञारूप पालिबंध (बांध)के विषयमें तू थोडी-सी भी हानिकी उपेक्षा न कर॥ विशेषार्थ-मुनिधर्म एक तालाबके समान है। जिस प्रकार तालाब जलसे परिपूर्ण होता है उसी प्रकार वह मुनिधर्म सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे परिपूर्ण होता है । यदि तालाबका बांध कहीं थोडा सा भी गिर जाता है तो उसमें फिर पानी स्थिर नहीं रह सकता है । इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्य सावधानीके साथ उसको ठीक करा देता है । ठीक इसी प्रकारसे यदि साधुधर्ममें भी की गई व्रतपरिपालनकी प्रतिज्ञामें कुछ त्रुटि होती है तो बुद्धिमान् साधुको उसकी उपेक्षा न करके उसे शीघ्र ही प्रायश्चित्त आदिके विधानसे सुधार लेना चाहिये । अन्यथा उसके सम्यग्दर्शनादि गुण स्थिर न रह सकेंगे ॥ २४७ ॥ दृढ गुप्तियों (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्नि) रूप किवाडोंसे सहित,धैर्यरूप भित्तियोंके आश्रित और बुद्धिरूप नीवसे परिपूर्ण, इस प्रकार गृहके