Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रवृत्ति-निवृत्त्योः स्वरूपम्
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निवृत्ति भावयेद्यावन्निवृत्यं तदभावतः । न वृत्तिन निवृतिश्च तदेव पदमव्ययम् ॥२३६॥ रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यानिवृत्तिस्तनिषेधनम् । तौ च बाह्यार्थसंबद्धौ! तस्मातान् सुपरित्यजेत् ॥२३७॥
मोक्षाभिलाषी भवान् तदा निवृत्तिमभ्यस्यतु । कस्याः । अभोग्य भोग्यात्मविकलबुद्धया अभोग्यभोग्यरूपभेदबुद्धः ॥२३५।। तन्निवृत्त्यभ्यासश्च कियत्कालं कर्तव्य इत्याहनिवृत्तिमित्यादि । यावन्निवृत्त्यर्थं वस्तु विद्यते तावनिवृत्ति भावयेत् । तदभावत: न वृत्तिर्न निवृत्तिश्च तदेव पदम् अव्ययम् ॥२३६।। अथ का प्रवृत्तिः का वा निवृत्तिः किंविषया वा सेत्याह-रायेत्यादि । तान् बाह्यार्थान् ।। २३७ ॥ तत्परित्यागं च
जो विवेकी जीव राग-द्वेषसे रहित होता है उसे इष्ट अनिष्टको कल्पना ही नहीं होती । इसीलिये वह एक मात्र अपने चैतन्यस्वरूपको छोडकर अन्य सभी बाह्य वस्तुओंसे निवृत्त रहता है-उसे सब ही अभोग्य प्रतीत होता है । यही निवृतिमार्ग उपादेय है। मोक्ष सुखाभिलाषी जीवको प्रवृतिमार्गसे अलग रहकर इस निवृत्तिमार्गका हो अभ्यास करना चाहिये ।।२३५।। जब तक छोडने के योग्य शरीरादि बाह्य वस्तुओंसे सम्बन्ध है तब तक निवृत्तिका विचार करना चाहिये और जब छोडनेके योग्य कोई वस्तु शेष नहीं रहती है तब न तो प्रवृत्ति रहती है और न निवृत्ति भी । वही अविनश्वर मोक्षपद है ॥ विशेषार्थ-जब तक बाह्य वस्तुओंसे अनुराग है तब तक निवृत्तिका अभ्यास करना चाहिये। तत्पश्चात् जब उन बाह्य वस्तुओंसे अनुराग नष्ट हो जाता है तब उनका संयोग भी हट जाता है और इसीलिये उस समय प्रवृत्ति ओर निवृत्ति से रहित अविनश्वर मोक्ष पद प्राप्त हो जाता है ॥२३६॥ राग और द्वेषका नाम प्रवृत्ति तथा इन दोनों के अभावका नाम ही निवृत्ति है। चूंकि वे दोनों (राग और द्वेष) बाह्य वस्तुओंसे सम्बन्ध रखते हैं । अतएव उन बाह्य वस्तुओंका ही परित्याग करना चाहिये ॥ २३७ ।। मैंने संसारस्वरूप
18स संबंधी।