Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
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[इलो० १४२
कस्य । रवेरिव अंशव: किरणाः कठोराश्च विकाशयन्ति । अरविन्दस्य पदस्य मुकुलम् ।।१४२॥ तथाभूतोक्तिभिश्च धर्म प्रतिपादयितुं प्रतिपत्तुं च सांप्रतं प्रविरलाः
कलीको प्रफुल्लित किया करती हैं। विशेषार्थ- पूर्व श्लोक शिष्यके दोषोंको प्रगट न करनेवाले जिस गुरुकी निन्दा की गई है उसके विषयम यह शंका उपस्थित हो सकती थी कि वह जो अपने शिष्यके दोषोंको प्रगट नहीं करता है वह इस कारणसे कि शिष्य किसी प्रकारको चिंतामें न पडे या ऐसा करनेसे उसे किसी प्रकारका कष्ट न हो । अतएव वह गुरु निन्द्य नहीं कहा जा सकता है । इस शंकाके उत्तरस्वरूप यहां यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार सूर्यको किरणें अन्य प्राणियोंके लिये यद्यपि कठोर (संतापकारक) प्रतीत होती हैं तो भी उनसे कमलकलिका तो प्रफुल्लित ही होती है। इसी प्रकार जो शिष्य आत्म हितसे विमुख हैं उन्हें ही गुरुके हितकारक भी वचन कठोर प्रतीत होते हैं, किन्तु जो शिष्य आत्महितको अभिलाषा रखते हैं उनको तत्क्षग कठोर प्रतीत होनेवाले भी वे वचन परिणाममें आनन्दजनक ही प्रतीत होते हैं-उन्हें इन कठोर वचनोंसे किसी प्रकारको चिन्ता व खेद नहीं होता है। इसके अतिरिक्त यह नीति भी तो प्रसिद्ध है कि “ हितं मनोहारि च दुर्लभं वच:"। इस नीतिके अनुसार छद्मस्थ प्राणियोंके जो वचन परिणाममें हितकारक होते हैं वे प्रायः मनोहर नहीं प्रतीत होते हैं
और जो ववन बाह्य में मनोहर प्रतीत होते हैं वे परिणाममें हितकारक नहीं होते हैं । अतएव शिष्यके हितको चाहनेवाले गुरुको उसे योग्य मार्गपर ले जानेके लिये यदि कदाचित् कठोर व्यवहार भी करना पडे तो दयाचित्त होकर उसे भी करना ही चाहिये । इस प्रकारसे वह अपने कर्तव्यसे च्युत नहीं होता है-- उसका पालन ही करता है ॥ १४२ ॥ पूर्व कालमें जिस धर्मके आचरणसे इस लोक और परलोक दोनों ही लोकोमें हित होता है उस धर्मका व्याख्यान