Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
समुसुङगे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिनं श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम् ॥ १७० ॥
[ क्लो० १७०
नयारच ते एव शाखाशतानि तै: युक्ते संयुक्ते समुत्तुङगे बृहति । सम्य ततमतिमूले सम्यक् समीचीना प्रतता विस्तीर्णा चासौ मतिश्च सा मूलं कारणं यस्य ' मतिपूर्वश्रुतम् " इत्यभिधानात् । अथ वा समीचीनं प्रततं प्रहृतं मतिरेक मूलं यस्य ॥ १७० ॥
रमावे - उसके चिन्तन में प्रवृत्त करें । जिस प्रकार वृक्ष फूलों और फलों के भारसे झुका हुआ होता है उसी प्रकार वह श्रुतरूप वृक्ष भी अनेक धर्मात्मक पदार्थों के भारसे ( विचारसे) नम्रीभूत है, वृक्ष यदि पत्रोंसे व्याप्त होता है तो यह श्रुतरूप वृक्ष भी पत्तोंके समान अर्धमागधी आदि भाषाओरूप वचनोंसे व्याप्त हैं, वृक्षमें जहां अनेकों शाखाओं का विस्तार होता है वहां इस श्रुतरूप वृक्षमें भी उन शाखाओंके समान नयोंका विस्तार अधिक है, जैसे वृक्ष उन्नत ( ऊंचा ) होता है वैसे ही श्रुतवृक्ष भी उन्नत (महान् साधारण जनोंको दुर्लभ ) है, तथा जिस प्रकार वृक्षको स्थिर रखनेवाली उसकी कितनी ही जड़ें फैली होती हैं, तथा उसी प्रकार अनेक (३३६) भेदोंरूप जो विस्तृत मतिज्ञान है वह इस श्रुतरूप वृक्षकी गहरी जडके समान है जिसके कि निमित्तसे वह स्थिर होता है । इस प्रकार उस चंचल मनको बाह्य विषयोंकी ओरसे खींचकर इस श्रुतरूप वृक्ष के ऊपर रमानेसे - श्रुतके अभ्यासमें लगानेसे - उसके निमित्त से होनेवाली राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है । इससे कर्मोंकी संवरपूर्वक निर्जरा होकर मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है ।। १७० ।। वह जीवादिरूप वस्तु तदतत्स्वरूप अर्थात् नित्यानित्यादिस्वरूपको प्राप्त होकर विरामको नहीं प्राप्त होती है, इस प्रकार समस्त तत्त्वका जानकार विश्वकी अनादिनिधनताका विचार करे ॥ विशेषार्थ ---- पूर्व श्लोक में यह निर्देश किया था कि साधुके लिये अपने चंचल मनको श्रुतके अभ्यास में लगाना चाहिये । इसका स्पष्टीकरण करते हुए यहां यह बतलाया है कि
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