Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 308
________________ शरीरेणात्माऽस्पृश्यः क्रियते यदादाय भवेज्जन्मी त्यक्त्वा मुक्तो भविष्यति । शरीरमेव तत्त्याज्यं किं शेषैः क्षुद्रकल्पनैः ॥ २०८ ॥ -२०९] १९५ नयेत् सर्वाशुचिप्रायः 2 शरीरमपि पूज्यताम् । सोप्यात्मा येन न स्पृश्यो दुश्चरित्रं धिगस्तु तत् ॥ २०९ ॥ कर्तव्येति चेलरित्याज्यत्वात् । एतदेवाह -- यदित्यादि । यच्छरीम् आदान गृहीत्वा । जन्मी संसारी | क्षुद्रकल्पनै: लघुविकल्पैः ॥ २०८ ॥ उपकारकेऽप्यात्मनि प्रतिकूलप्रवृत्तित्वाच्वेदं शरीरं त्याज्यमित्याह-- नयेदित्यादि । येन शरीरेण । न स्पृश्यो नानुकृतः सुविशुद्धचेतनत्वादिधर्मः । दुश्चरित्रं तत्प्रसिद्ध चेष्टितं यस्य दुश्चरित्रं अथवा दुःखं चरित्रं मिथ्यानुष्ठानं तत्प्रसिद्धम् । येन दुश्चरित्रेण ॥ २०९ ॥ एवं विधशरीरादिभागत्रयसमन्वितः संसारीति दर्शयन् जिस शरीरको ग्रहण करके प्राणी जन्मवान् अर्थात् संसारी बना हुआ है तथा जिसको छोडकर वह मुक्त हो जावेगा उन शरीरको ही छोड़ देना चाहिये । अन्य क्षुद्र विचारोंसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? कुछ भी नहीं ॥ २०८ ॥ जो आत्मा प्रायः करके सब ओरसे अपवित्र ऐसे उस शरीरको भी पूज्य पदको प्राप्त कराता है उस आत्माको भी जो शरीर स्पर्शके योग्य भी नहीं रहने देता है उसको धिक्कार है ॥ विशेषार्थ -- जीव जब संयम और तप आदिको धारण करता है तब उसका शरीर लोकवन्द्य बन जाता है । इस प्रकारसे जो आत्मा उस घृणित एवं अपवित्र शरीरको लोकपूज्य बनाता है उसका अनुकरण न कर वह शरीर उसे निन्द्य चाण्डालादि पर्यायमें प्राप्त कराकर स्पर्श करनेके योग्य भी नहीं रहने देता है । इस तरह उस शरीरको देव - मनुष्यादिके द्वारा पूज्य बनाकर आत्मा तो उसका उपकार करता है, परन्तु वह शरीर कृतघ्न होकर उस उपकारी आत्माके साथ इतना दुष्टतापूर्ण आचरण करता है कि उसे निन्द्य पर्यायमें प्राप्त कराकर ऐसा हीन बना देता है कि विवेकी जन उसका स्पर्श भी नहीं करना चाहते हैं । अभिप्राय यह है कि जब आत्मा उस शरीर के सम्बन्धसें ही लोक निन्द्य होकर अनेक प्रकारके दुःखोंको सहता है तब ऐसे अहितकर शरीरके सम्बन्धको सदाके लिये देना चाहिये ॥ २०९ ॥ संसारी प्राणीका रस आदि सात धातुओं 1 मु यदा यदा भवे । 2 मुप्रायं ।

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