Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 312
________________ मात्सर्य त्यजनीयम् निर्व्यूढेऽपि प्रवाहे सलिलमिव मनाग्निम्न देशेष्ववश्यं मात्सर्यं ते स्वतुल्ये भवति परवशाद् दुर्जयं तज्जहीहि ॥ २१५५ -२१६ ] चित्तस्थमप्यनवबुद्ध्य हरेण जाड्यात् क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङगबुद्धया । घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ॥ २१६ ॥ | / १९९ शिक्षां प्रयच्छन्नाह-- उद्युक्त इत्यादि । उद्युक्तः उद्यतः । अधिकम् अभिभवमे अतिशयेन नाशम् । प्राभूद्बोधोऽप्यगाध: उत्पन्नो बोधोऽपि महान् । दुर्लक्ष्यं मात्सर्यम् । मनाक् ईषत् । परवशात् कर्मवशात् ।। २१५ ।। ननु कषायेषु सत्सु arrer कोsपकारस्याद्येनावश्यं ते जेतव्याः इत्याशङक्य कोअरेदयेऽपकारं दर्शयंश्चित्तस्थमित्याह - चित्तस्थेत्यादि । चित्तस्थमपि अनङगम् । घोरां बहुतरापमानकरीम् । अवाप प्रापितवान् । स हि स हरः, हि स्फुटम् । तेन अनङगेन ॥ २१६ ॥ है; तो भी जैसे प्रवाह सूख जानेपर भी कुछ नींचे के भाग में पानी अवश्य रह जाता है जो कि दूसरोंके द्वारा नहीं देखा जा सकता है, वैसे ही कर्मके वशसे जो अपने समान अन्य व्यक्ति में तेरे लिये मात्सर्य ( ईर्ष्या भाव) होता है वह दुर्जय तथा दूसरों के लिये अदृश्य है । उसको तू छोड दे ॥ विशेषार्थ - जो जीव घोर तपश्चरण कर रहा है, कष । योंको शान्त कर चुका है, तथा जिसे अगाध ज्ञान भी प्राप्त हो चुका है, फिर भी उसके हृदय में अपने समान गुणवाले अन्य व्यक्ति के विषय में जब कभी मात्सर्यभावका प्रादुर्भाव हो सकता है जो कि दूसरोंके द्वारा नहीं देखा जा सकता है । जैसे- जलप्रवाह के सूख जानेपर भी कुछ नीचे के भागों में जल शेष रह जाता है । उस मात्सर्य भावको भी छोड देनेका यहां उप देश दिया गया है || २१५ ॥ जिस महादेवने क्रोधको वश होते हुए अज्ञानतासे चित्त में भी कामदेवको न जानकर उस कामदेव के भ्रमसे किसी बाह्य वस्तुको जला दिया था वह महादेव उक्त कामके द्वारा की गई भयानक अवस्थाको प्राप्त हुआ है । ठीक है- क्रोधके कारण किसके कार्यकी हानि नहीं होती है ? अर्थात् उसके कारण सब ही जनके

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