Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम् [श्लो० १८८- मृत्योर्मृत्यन्तरप्राप्तिरुत्पत्तिरिह देहिनाम् । तत्र प्रमुदितान् मन्ये पाश्चात्ये पक्षपातिनः ॥ १८८॥
प्राप्नोति । सकलसंन्यासः सर्वसंगपरित्यागः । तस्य विपर्ययः सर्वसंगपरित्यागाभावः ॥ १८७ ॥ ननु पुत्रादिमृत्योः शोकः तदुत्पत्तेस्तु प्रमोदस्तत्र केयमुत्पत्तिर्नामेत्याह-- मृत्योरित्यादि । मृत्योः पूर्वशरीरत्यागात् । मृत्यन्तरप्राप्ति: उत्पत्तिः- उत्पत्ते: उत्तरमृत्युना अविनाभावित्वादुपचारादुत्पत्तिरेव
दुख और उसके अभावका नाम सुख है। जो प्राणी विषयभोगोंकी तृष्णासे युक्त होकर अपनी इच्छानुसार उन्हें प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है वह व्याकुल होकर जैसे इस लोकमें परिश्रमजन्य दुखको सहता है वैसे ही वह उक्त विषयोंके लाभालाभमें हर्ष व विवादको प्राप्त होता हुआ पापकर्मको उपार्जित करके परलोकमें भी दुर्गतिके दुखको सहता है । इसके विपरीत जो स्वेच्छासे उन विषय-भोगोंकी अभिलाषा न करके उन्हें छोड देता है और तप-संयमको स्वीकार करता है वह निराकुल रहकर जैसे इस लोक में सुखका अनुभव करता है वैसे ही वह राग-द्वेषसे रहित हो जानेके कारण पाप कर्मसे रहित होकर परलोक (स्वर्गादि) में भी सुखका अनुभव करता है ।। १८७ ॥ यहां संसार में एक मरणसे जो दूसरे मरणकी प्राप्ति है, यही प्राणियोंकी उत्पत्ति है। इसलिये जो जीव उत्पत्तिमें हर्षको प्राप्त होते हैं वे पीछे होनेवाली मृत्युके पक्षपाती हैं, ऐसा मैं समझता हूं ॥ विशेषार्थ-- लोकमें जब किसीके यहां पुत्रादिका जन्म होता है तब तो कुटुम्बी जन अतिशय हर्षको प्राप्त होकर उत्सव मनाते हैं और जब किसी इष्टका मरण होता है तब वे दुखी होकर रुदन करते हैं। वे यह नहीं विचार करते कि वह जन्म क्या है, आखिर आगे होनेवाली मृत्युका ही तो वह निमन्त्रण है । फिर जब वे पुत्रादिके जन्मम उत्सव मनाते हैं तो यही क्यों न समझा जाय कि वे आगे होनेवाली उसकी मृत्युका ही उत्सव मना रहे हैं। कारण यह कि जब वह उत्पन्न हुआ है तो मरेगा भी अवश्य ही। कहा भी है-- संयुक्तानां वियोगश्च भविता हि नियोगतः । किमन्यैरङ्गतोऽप्यङ्गी निःसंगो हि निवर्तते ॥