Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 299
________________ १८६ आत्मानुशासनम् [श्लो० १९३आत्मेत्यां परमात्मतां प्रतिपतन् प्रत्यात्मविद्यात्मकः स्वात्मोत्थात्मसुखो निषीदसि लसन्नध्यात्ममध्यात्मना ॥ १९३ ॥ अनेन सुचिरं पुरा त्वमिह दासवद्वाहित स्ततोऽनशनसाभिभक्तरसवर्जनादिक्रमः। सुखः स्वात्मोत्थं न विषयोत्थम् आत्मसुखं निजसुखं यस्य । निषीदसि सुखी भवसि । लसन् शोभमानः । अध्यात्मनि स्वस्वरूपे । अध्यात्मना विशुद्धात्मस्वरूपेण ॥ १९३ ।। सा च परमात्मता सिद्धावस्थालक्षणा शरीरभावे भविष्यति, अतः सर्वदा अपकारकस्य शरीरस्य आगमोक्तविधिना अभावविधानाय यत्नः कर्तव्य इति दर्शयन्नाह- अनेनेत्यादि । अनेन शरीरेण । साभिभक्तम् अवस्थाको प्राप्त करता है । उस समय वह सकल परमात्मा कहा जाता है । तत्पश्चात् वह शेष चार घातिया कर्मोंको भी नष्ट करके निकल परमात्मा (सिद्ध) हो जाता है। इस समय जो निराकुल सुख उसे प्राप्त होता है वह आत्माके द्वारा आत्मामें ही उत्पन्न किया गया आत्मीक सुख है जो शाश्वतिक (अबिनश्वर) है। इस प्रकार यहां यह उपदेश दिया गया है कि हे आत्मन् ! तू अनादि कालसे बहिरात्मा (मिथ्यादृष्टि) रहा है। उस समय तूने न्याय-अन्यायका विचार न करके जो मनमाना आचरण किया है उसके कारण अनेक दुःखोंको सहा है। इसलिये अब तु सम्यग्दर्शनको प्राप्त करके अन्तरात्मा बन जा और जो व्रत-संयम आदि आत्माके हितकारक हैं उनमें प्रवृत्त होकर परमात्मा बननेका प्रयत्न कर । ऐसा करनेपर ही तुझे वास्तविक सुख प्राप्त हो सकेगा ॥ १९३ ॥ पूर्व समयमें इस शरीरने तुझे संसारमें बहुत कालतक दासके समान घुमाया है। इसलिये तू आज इस घृणित शरीरको हाथमें आये हुए शत्रुके समान जबतक कि वह नष्ट नहीं होता है तबतक अनशन, ऊनोदर एवं रसपरित्याग आदिरूप विशेष तपोंके द्वारा क्रमसे कृश कर ।। विशेषार्थ- लोकमें जो जिसका अहित करता है वह उसका शत्रु माना जाता है। इस स्वरूपसे तो यह शरीर ही अपना वास्तविक शत्रु सिद्ध होता है । कारण यह कि शत्रु तो कभी किसी विशेष समयमें ही प्राणीको कष्ट देता है, परन्तु यह शरीर तो जीवको अनादि कालसे अनेक योनियों में परिभ्रमण कराता

Loading...

Page Navigation
1 ... 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366