Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-१७५]
श्रुतभावनायाः फलं ज्ञानमेव ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्र मृग्यते ॥ १७५॥
पृथक्त्वैकरूपशुक्लध्यानात्मके च भाग्यमाने किं फलं स्यादित्याशङ्याह-- ज्ञानमित्यादि । अनश्वरम् अनन्तम् । अन्यदपि अणिमामहिमादि लामपूजादि वा। अत्र ज्ञाने ।। १७५ ॥ श्रुतज्ञानभावनायां प्रवृत्तयो व्याभव्ययोः किं फलं
ज्ञानस्वभावका विचार करनेपर प्राप्त होनेवाला उसका फल भी वही ज्ञान है जो कि प्रशंसनीय एवं अविनश्वर है। परन्तु आश्चर्य है कि अज्ञानी प्राणी उस ज्ञानभावनाका फल ऋद्धि आदिको प्राप्ति भी खोजते हैं, यह उनके उस प्रबल मोहकी महिमा है। विशेषार्थ- उक्त ज्ञानभावनाके चिन्तनसे क्या फल प्राप्त हो सकता है, इस जिज्ञासाकी पूर्तिस्वरूप यहां यह बतलाया है कि उक्त ज्ञानभावना (श्रुतचिन्तन) का फल भी उसी ज्ञानको प्राप्ति है । कारण यह कि श्रुतज्ञानका विचार करनेपर साक्षात फल तो उन उन पदार्थो के विषय में जो अज्ञान था वह नष्ट होकर तद्विषयक ज्ञानको परिप्राप्ति है, तथा उसका पारम्परित फल निर्मल एवं अविनश्वर केवलज्ञानकी प्राप्ति है। इस तरह दोनों भी प्रकारसे उसका फल ज्ञानको ही प्राप्ति है । उसका फल जो ऋद्धि-सिद्धि आदि माना जाता है वह अज्ञानतासे ही माना जाता है। कारण यह कि जिस प्रकार खेतीका वास्तविक फल अन्नका उत्पादन होता है, न कि भूसा आदि- वह तो अन्नके साथमें अनुषंगस्वरूपसे होनेवाला ही है । इसी प्रकार श्रुतभावनाका भी वास्तविक फल केवलज्ञानकी प्राप्ति ही है, उनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली ऋद्धियों आदिकी प्राप्ति तो उक्त भूसेके समान उसका आनुषंगिक फल है । अतएव जिस प्रकार कोई भी किसान भूसप्राप्तिके विचारसे कभी खेती नहीं करता है, किन्तु अन्नप्राप्तिके ही विचारसे करता है। उसी प्रकार विवेकी जनोंको भी उक्त केवलज्ञानकी प्राप्तिके विचारसे ही श्रुतभावनाका चिन्तन करना चाहिये, न कि ऋद्धि आदिकी प्राप्ति इच्छासे ॥ १७५ ।।
। प.स्यादित्याह ।