Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 269
________________ १५६ [ श्लो० १६५ आत्मानुशासनम् त्यजतु तपसे चक्रं चत्री यतस्तपसः फलं सुखमनुपमं स्वोत्थं नित्यं ततो न तदद्भुतम् । इदमिह महच्चित्रं यत्तद्विषं विषयात्मकं पुनरपि सुधीस्त्यक्तं भक्तुं जहाति महत्तपः ॥ १६५ ॥ शय्यातलादपि तुकोऽपि भयं प्रपातात् तुङ्गात्ततः खलु विलोक्य किलात्मपीडाम् । चित्रं त्रिलोकशिखरादपि दूरतुङ्गाद् धीमान् स्वयं न तपसः पतनाद्विभेति ॥ १६६ ॥ स्वरूपप्रभवम् । विषं विषयात्मकं विषयरूपं विषम् । जहाति त्यजति । १६५ ।। तपस्त्यजतां च विस्मयं कुर्वन्नाह - शय्यातलादिति । तुक्रोऽपि बालोऽपि I भयं गच्छति । कस्मात् । प्रपातात् प्रपतनात् । तुङ्गात् महतः । ततः शय्यातलात् । दूतुङ्गात् अतिशयेन महतः कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है । आश्चर्य तो महान् इस बातका है कि जो बुद्धिमान् पूर्व में विषयोंको विष के समान घातक समझकर छोड़ देता है और तत्पश्चात् उन्हीं छोडे हुए विषयोंको फिरसे भोगने के लिये ग्रहण किये हुए उस महान् तपको भी छोड देता है ।। १६५ ।। देखो, बालक भी ऊंचे शय्यातल ( पलंग ) से गिर जानेपर होनेवाली अपनी पीडाको देखकर निश्चयतः उससे भयको प्राप्त होता है । परन्तु आश्चर्य है कि बुद्धिमान् साधु तीन लोकके शिखरसे भी अतिशय ऊंचे (महान्) उस तपसे स्वयं च्युत होता हुआ भयको प्राप्त नहीं होता है ॥ विशेषार्थ -- तप तीनों लोकोंमें अतिशय पूज्य एवं अविनश्वर सुखका कारण है, इसीलिये उसे तीन लोकके शिखरसे भी उन्नत बतलाया गया है । जो बालक हिताहित विवेकसे रहित होता है वह भी जब ऊंचे किसी पलंग - या पालने आदिमें स्थित होता है तब वहांसे गिर पडनेकी आशंका से भयभीत होता है । परन्तु जो साधु विवेकी है और इसीलिये जिसने विषयतृष्णा को छोडकर तपको स्वीकार किया था वह फिरसे भी उस उच्छिष्टक समान विषयसुख के उपभोगके लिये आतुर होता हुआ ग्रहण किए हुए उस तपको छोडकर दुर्गतिमें पडनेसे भयभीत नहीं होता, यह

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