Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
-४८) बाह्यवस्तुनीष्टाविष्टकल्पनयोर्व्यर्थता
संकल्प्येदमनिष्टमिष्टमिदमित्यज्ञातयाथाल्यको बाह्ये वस्तुनि किं वृथैव गमयस्यासज्य कालं मुहुः । अन्तःशान्तिमुपैहि यावददयप्राप्तान्तकप्रस्फुरज्ज्वालाभीषगजाठरानलमुखे भस्मीमवेनो भवान् ॥४८॥
दाढोत्पादनार्थी रतिद्वेषौ निराकुर्वन्नाह- संकल्प्येत्यादि । अज्ञातयाथात्म्पर्कः यथावत्पदार्थपरिज्ञानरहित: । आसज्य आसक्तो भूत्वा संबंध्य (?) वा। कालं गमयसि नयसि । अन्तःशान्ति रागादिपरिहारम् । उपैहि गच्छ । यावन्न भस्मीभवेद्भवान् । क्वेत्याह अदयेत्यादि । अदयो निर्दयः स चासो प्राप्तश्चासौ अन्न करने मृत्युस्तस्य प्रस्फुरन् ज्वालाभीषणश्चासौ जाठरानलश्च तस्य मुखे ॥४४॥अन्तःशान्ते (न्ति) रेव च कांक्षानद्या नीत्वा भवसमुद्रे पात्यमानस्य भवतस्तरणोपाय
जो खेतो, पशुपालन एवं व्यापार आदिके द्वारा धन कमानेके लिये बार बार कष्ट सहता है वैसी कष्टमय प्रवृत्ति (तपश्चरणादि) परलोककी बुद्धिसे अर्थात् आगामी भवको सुखमय बनानेके लिये यदि एक बार भी करता तो फिर निश्चयसे बार बार जन्म-मरण आदिके दुःखको न प्राप्त करता ॥४७॥ हे भव्य ! तू पदार्थके यथार्थ स्वरूपको न जानकर 'यह इष्ट है और यह अनिष्ट है' इस प्रकार मानता हुआ बाह्य वस्तुओं (स्त्री पुत्र एवं धन आदि) में आसक्त होकर व्यर्थमें ही क्यों बार बार समयको बिताता है ? जब तक तू प्राप्त हुए निर्दय काल (मरण) की प्रगट ज्वालाओंसे भयानक औदार्य अग्निके मुख में पडकर भस्मसात् नहीं होता है तबतक राग-द्वेषादिके परिहारस्वरूप आन्तरिक शान्तिको प्राप्त कर ले । विशेषार्थ-किसका कब मरण होगा, इसे कोई भी प्राणी नहीं जानता है । इसलिये यहां परलोकको सुखमय बनानेके लिये यह उपदेश दिया गया है कि हे जीव! तू अविवेकी होकर बाह्य परपदार्थोंमें राग और द्वेष करता हुआ अपने समयको यों ही न बिता । कारण कि ऐसा करते हुए तुझे कभी निराकुलता प्राप्त न हो सकेगी।पहिली बात तो यह है कि ये बाह्य पदार्थ अपनी इच्छा अनुसार प्रायः प्राप्त ही नहीं
न दार्गपादनार्थम् । 2 रामादिक