Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
-७५ ]
अध्यतमोऽन्तकः
क्षितिजलधिभिः संख्यातीतैर्बहिः पवनैस्त्रिभिः परिवृतमतः खेनाधस्तात्खलासुरनारकान् । उपरि दिविजान् मध्ये कृत्वा नरान् विधिमन्त्रिणा पतिरपि नृणां त्राता नैको ह्यलङ्घ्यतमोऽन्तकः ॥ ७५ ॥
७३
विधिनापि प्रयत्ने कृते तद्रक्षा कर्तुं न शक्येति दर्शयन्नाह-- क्षितीत्यादि । परिवृतं वेष्टितं जगत् । कैः । क्षितिजलधिभिः द्वीपसमुद्रः । कथंभूतैः । संख्यातीतः असंख्यातैः । ततरे बहिः पवनैः घनवाताम्बु वाततनुवातनामभिस्त्रिभिः परिवृतम् । अतः पवनत्रयात् परतः । खेन आकाशेन परिवृतम् । अधस्तात् अधोभागे । खलासुरनारकान् कृत्वा । उपरि ऊभागे । दिविजान् देवान् । मध्ये मध्यभागे । नरान् कृत्वा । इत्थं नररक्षार्थं जगत् परिवृतम् । केन । विधिमन्त्रिणा । सोऽपि न त्राता । न केवलं विधिमन्त्री, नान्योऽपि त्राता । अथवा यद्विधि मन्त्रिणा परिवृतं यत्नं ( ? ) कृतं तन्न त्रातृ । न केवलं तन्न त्रातृ, अपि तु पतिरपि
मंत्रीने इस लोकमें नीचे दुष्ट असुरकुमार देवों और नारकियोंको तथा ऊपर वैमानिक देवों को करके मध्य में मनुष्यों को स्थापित किया और उनके निवासभूत उस मनुष्यलोकको असंख्यात पृथिवीस्वरूप द्वीपों और समुद्रोंसे वेष्टित किया । उनके भी बाहिर तीन ( घनवातवलय, अम्बुवातवलय, और तनुवातवलय) वातवलयोंसे तथा उनके भी आगे उसे आकाशसे वेष्टित किया । इतनेपर भी न तो वह विधिरूप मंत्री ही उन मनुष्यों की रक्षा कर पाता है और न चक्रवर्ती आदि भी । कारण यह कि लोकमें अतिशय दुर्गम एक वह यम ( मृत्यु ) ही है || विशेषार्थ - जिस प्रकार किसी राजाका सुयोग्य मंत्री राजा और उसके राज्यकी रक्षाके लिये कोट एवं गहरी खाईसे वेष्टित नगरका निर्माण कराकर उसके बीच में दुर्गम दुर्ग ( किला ) का निर्माण कराता है उसी प्रकार मंत्रीके समान विधिने मनुष्यों की सुरक्षा के लिये उनके निवासस्थान ( मनुष्यलोक) को कोट और खाईके समान एक दो नहीं किन्तु असंख्यात द्वीप- समुद्रोंसे, इसके पश्चात् तीन वायुमण्डलों और तत्पश्चात् भी आकाशसे वेष्टित किया; तथा उनके