Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
[ श्लो० १२७
हन्युः स्त्रीभुजगाः पुरेह च मुहुः क्रुद्धाः प्रसन्नास्तथा योगीन्द्रानपि तान् निरौषधविषा दृष्टाश्च दृष्ट्वापि च ॥ १२७॥
मुहुर्वारंवारम् क्रुधा(द्धाः)रुण्ठा: । प्रसन्नास्तुष्टाः । योगीन्द्रानपि योगिनां प्रधानानपि । तान् लोकप्रसिद्धान् रुद्रादीन् । निरौषधविषा औषधान्निष्क्रांतं । विषं यासाम् । दृष्टा योगीन्द्रैः दृष्ट्वा योगीन्द्रान् ॥ १२७ ॥ एतामित्यादि । अभिजनाय कुलीनजनैरा
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बहुत-सी औषधियां भी हैं । परंतु स्त्रीरूप सर्प क्रोधित होकर तथा प्रसन्न हो करके भी उन प्रसिद्ध महर्षियों को भी इस लोक में और पर लोक में भी बार बार मार सकती हैं । वे जिसकी ओर देखें उसका तथा जो उनकी ओर देखता है उसका भी दोनोंका ही धात करती हैं तथा उनके विषको दूर करनेवाली कोई औषधि भी नहीं हैं ॥ विशेषार्थ. पूर्व श्लोक में स्त्रियोंको जो दृष्टिविष सर्पकी अपेक्षा भी अधिक दुखप्रद बतलाया है उसीका स्पष्टीकरण प्रस्तुत श्लोकके द्वारा किया जा रहा है । यथा सर्प जब किसी के द्वारा बाधाको प्राप्त होता है तब ही वह क्रुद्ध होकर किसी विशेष काल और किसी विशेष देशमें ही काटता है तथा उसके विषको नष्ट करनेमें समर्थ ऐसी कितनी ही औषधियां भी पायी जाती हैं । फिर भी यदि वह अधिक से अधिक कष्ट दे सकता है तो केवल एक बार मरणका ही कष्ट दे सकता है | परंतु स्त्रियां जिसके ऊपर क्रुद्ध हो जाती हैं उसे तो वे विषप्रयोग आदिके उपायोंसे मारती ही हैं, किन्तु जिसके ऊपर वे प्रसन्न रहती हैं उसे भी मारती हैं- कामासक्त करके इस लोक में तो रुग्णता व बन्दीगृह आदिके कष्टको दिलाती हैं तथा परलोकमें नरकादि दुर्गतियोंके दुखके भोगनेमें निमित्त होती हैं । साधारण जनकी तो बात ही क्या है, किन्तु वे बडे बडे तपस्वियोंको भी भ्रष्ट कर देती हैं । इसके अतिरिक्त दृष्टिविष सर्प जिसकी ओर देखता है उसे ही वह विषसे संतप्त करता है, किन्तु वे स्त्रियां जिसकी ओर स्वयं दृष्टिपात ( कटाक्षपात ) करती
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1 ज स ऊषधातिक्रान्तं ।