Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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नपुंसकेन मनसा पुमान् जीयते
मनो ननु नपुंसकं त्विति न शब्दतश्चार्थतः सुधीः कथमनेन सन्नुमयथा पुमान् जीयते ॥ १३७ ॥ राज्यं सौजन्ययुक्तं श्रुतवदुस्तपः पूज्यमत्रापि यस्मात् त्यक्त्वा राज्यं तपस्यन् न लघुर तिलघुः स्यात्तपः प्रोह्य राज्यम् ।
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सुधीः सुविवेकी । उभयया च शब्दतोऽर्थतश्च । पुमान् सन् अनेन उभयथा नपुंसकेन मनसा कथं जीयते ।। १३७ ।। तस्मान्मनोऽभिभूय सुविवेकिना सम्यक्तप: कर्तव्यम्, तत्कुर्वतः परमपूज्यतो पत्तेरित्याह-- राज्यमित्यादि । सौजन्ययुक्तं दुष्ट निग्रहशिष्ट पाळनोपेतम् । श्रुतवदुरुतपः आगमज्ञानपूर्वकं महातपः अत्रापि
स्वयं तो भोग नहीं सकता है, परन्तु दूसरे जनों को भोगते हुए देख-सुनकर वह आनन्दित अवश्य होता है; उसी प्रकार वह मन भी स्त्रीके भोगके लिये व्याकुल तो होता है, पर भोग सकता नहीं है, भोगती वे स्पर्शनादि इन्द्रिया हैं जिन्हें कि भोगते हुए देखकर वह प्रसन्न होता है । इस प्रकार वह मन शब्द और अर्थ दोनोंसे ही नपुंसक सिद्ध है । अब जरा पुरुषकी भी अवस्थाको देखिये- वह शब्द और अर्थं दोनोंसे ही पुरुष है । वह शब्दसे पुरुष ( पुल्लिंग) है, यह तो व्याकरणसे सिद्ध ही है । साथ ही वह अर्थसे भी पुरुष है । कारण यह कि वह सुधी है-विवेकी है - इसलिये जब वह अपने स्वरूपको समझ लेता है, तब लौकिक साधारण स्त्रियोंकी तो बात ही क्या, वह तो मुक्ति - रमणीके भी भोगने में समर्थ होता है । अतएव यह समझना भूल है कि मन पुरुषके ऊपर प्रभाव डालता है । वस्तुस्थिति तो यह है कि पुरुष ही उसे अपने नियन्त्रण में रखता है । अभिप्राय यह हुआ कि जो पुरुष कहला करके भी यदि अपने मन के ऊपर नियन्त्रण नहीं रख सकता है तो वह वास्तवमें पुरुष कहलाने के योग्य नहीं है ॥ १३७ ॥ सुजनता ( न्याय-नीति ) से सहित राज्य और शास्त्रज्ञान से सहित महान् तप, दोनो यहां पूज्य हैं । परन्तु इन दोनोंमें भी चूंकि राज्यको छोडकर तपश्चरण करनेवाला मनुष्य लघु नहीं रहता - महान् हो जाता है, और इसके विपरीत तपको छोडकर राज्य