Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
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श्लो० १२५
पन्थाश्च प्रगुणः शमाम्बुबहुलश्छाया दयाभावना यानं तं मुनिमापयेदभिमतं स्थानं विना विप्लवः ॥१२५॥ मिथ्या दृष्टिविषान् वदन्ति फणिनो दृष्टं तदा सुस्फुट यासामर्धविलोकनैरपि जगदंदाते सर्वतः ।
प्रगुण: प्राञ्जलः मनोवाक्कायकुटिलतारहितः । शमाम्बुबहुल: शम उपशमः स एव अम्बु पानीयं बहुलं प्रचुरं बहलं वा यत्र । एवंविधं यानं गमनं कर्तृ आपयेत् प्रापयेत् । तं चतुर्विधाराधनाराधकं मुनिम् । अभिमतं स्थानं मोक्षम् । विना विप्लवैः उपद्रवमन्तरेण ॥ १२५ ॥ के ते तद्याने विप्लवा इत्याशक्य पञ्चश्लोकैस्तद्विप्लवानाह-मिथ्येत्यादि । मिथ्या असत्यम् । दृष्टिविषान् दृष्टी विषं येषां तान् । दृष्टिविषत्वम् आसु स्त्रीषु । अर्धविलोकनैः कटाक्षः ।
मुक्तिका पथिक साधु सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित होता हआ अवश्य ही अपने अभीष्ट पद (मोक्ष) को प्राप्त करता है। अभिप्राय यह है कि जो मुनि सम्यग्दर्शन आदि चार आराधनाओंका आराधान करता है वह निःसन्देह मोक्षको प्राप्त करता है। प्रस्तुत श्लोकमें जिस प्रकार ज्ञान,तप और चारित्र इन तीन आराधनाओंका पृथक् पृथक् उल्लेख किया है वैसा सम्यग्दर्शन आराधनाका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया है,किन्तु उसे ज्ञानाराधनाके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है । इसका कारण सम्यग्ज्ञानका उक्त सम्यग्दर्शनके साथ अविनाभाव है- उसका सम्यग्दर्शनके विना आविर्भूत नहीं होना है। इसीलिये उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया है ॥१२५॥ व्यवहारी जन जो सर्पोको दृष्टिविष कहते हैं वह असत्य हैं,क्योंकि,वह दृष्टिविषत्व तो उन स्त्रियोंमें स्पष्टतया देखा जाता है जिनके अर्धविलोकन रूप कटाक्षोंके द्वारा ही संसार (प्राणी) सब ओरसे अतिशय संतप्त होता है । हे साधो ! तू जो उनके विरुद्ध आचरण कर रहा है सो वे तेरे ही विषयमें अतिशय क्रोधको प्राप्त होकर इधर उधर घूम रही हैं । वे स्त्रीके रूपमें केवल विष ही हैं। इसीलिये तू उनका विषय न बन॥ विशेषार्थ-पूर्वके श्लोकमें यह बतलाया था कि जो
1 ज स मोक्षे ।