Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम् [श्लो० ७३उच्छ्वासः खेदजन्यत्वाद् दुःख मेषोऽत्र जीवितम् । तद्विरामोभवेन्मृत्युर्नृणां भर्ण कुतः सुखम् ॥७३॥ जन्मतालद्रुमाज्जन्तुफलानि प्रच्युतान्यधः। "
अप्राप्य मृत्युभूभागमन्तरे स्युः कियच्चिरम् ॥७४॥ . . . उच्छ्वास इत्यादि । एष उछ्वास: । तद्विराम: उच्छ्वासविनाशः ॥ ७३ ।। उत्पत्तिविनाशान्तराले वर्तमानानां च प्राणिनां जोक्तेि कियत्काल समाश्वास: स्यात् इत्याह-- जन्मेत्यादि । प्रत्युतानि पतितानि ।। ७४ ॥ जन्तुरक्षार्थ च प्रयत्न न करके जिस शरीरके संयोगसे यह परिभ्रमण हो रहा है उसे ही छोड देनेका प्रयत्न कर सकता है और तब ऐसा करनेसे उस अविनश्वर सुख भी अवश्य प्राप्त हो सकता है ।।७२।। उच्छवास कष्टसे उत्पन्न होनेके कारण दुखरूप है और यह उच्छ्वास ही यहां जीवन तथा उसका विनाश ही मरण है । फिर बतलाईये किं मनुष्योंको सुख कहांसे हो सकता है? नहीं हो सकता है । विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि श्वासोच्छ्वासका चाल रहना,यही तो जीवन है। सो वह श्वासोच्छ्वास चूंकि कष्टसे उत्पन्न होता है अंतएव इससे समस्त जीवन ही दुखमय हो जाता है । और उस श्वासोच्छवासके नष्ट हो जानेपर जंब मरण अनिवार्य है तब उसके पश्चात सुख भोगनेवाला रहेगा कौन ? इस प्रकार संसार में सर्वदा दुख ही है ॥७३॥ जन्मरूप ताडके वृक्षसे नीचे गिरे हुए प्राणीरूप फल मृत्युरूप पृथिवीतलको न प्राप्त होकर अन्तसलमें कितने काल रह सकते हैं ? विशेषार्थ-- जिस प्रकार ऊंचे भी ताडवृक्षसे नीचे गिरे हुए फल क्षण मात्र अन्तरालमें रहकर निश्चित ही पृथ्वीतलका 'आश्रय ले लेते हैं उसी प्रकार ताडवृक्षके समान जन्मसे उत्पन्न होनेवाले प्राणी अल्प काल ही बीचमें रहकर निश्चयंसे इस पृथ्वीतलंके समान मृत्युको प्राप्त करते ही हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार वृक्षसे गिरा हुआ फल पृथ्वीके ऊपर अवश्य गिरता है उसी प्रकार जो प्राणी जन्म लेते हैं वे मरते भी अवश्य हैं-स्थिर रहनेवाला कोई भी नहीं है ॥ ७४ ॥ विधि (ब्रह्मा या कर्म) रूप · ! स मु (ज. नि.) तद्विरामे