Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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राजसेवां कुर्वतां निन्दा
लोकाधिपाः क्षितिभुजो भुवि येन जाताः तस्मिन् विधौ सति हि सर्वजनप्रसिद्धे । शोच्यं तदेव यदमी स्पृहणीयवीर्यास्तेषां बुधाश्च बत किंकरतां प्रयान्ति ॥ ९५ ॥
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उद्भूतवीर्याणां लक्ष्मीविलासाभिलाषेण राज्ञां सेवां कुर्वतामनुशयं कुर्वयन्नाह - लोके - त्यादि । क्षितिभुजो राजानः । भुवि । लोकाधिपाः लोकस्वामिनः, लोकाधिका वा पाठ: । येन धर्मलक्षणेन विद्धि ( धि ) ना । स्पृहणीयवीर्याः श्लाघ्यसामर्थ्याः । तेषां क्षितिभुजाम् । बुधाश्च विबुधा अपि । किंकरतां भृत्यताम् ॥ ९५ ॥ पादोपनतोत्तमाविचारात्मक बोध ही नहीं प्राप्त होता है । पंचेन्द्रियों मे भी सभी जीवोंके मन नहीं होता- कुछके ही होता है । जिनके वह होता है उनको भी प्रायः आत्महितका विवेक नहीं रहता । फिर जो आत्महितका विवेक होनेपर भी तदनुरूप आचरण करनेमें असावधान रहते हैं उनके ऊपर बुद्धिमानोंको खेद होता है । कारण यह कि वे उपयुक्त सामग्रीको प्राप्त करके भी हितके मार्ग में प्रवृत्त नहीं होते और इस प्रकारसे उक्त सामग्रीके विनष्ट हो जानेपर फिर उसका पुनः प्राप्त होना कठिन ही है ।। ९४ ॥ जिस विधि (पुण्य) से पृथिवीके ऊपर लोकके अधिपति राजा हुए हैं उस विधिके सर्व जनों में प्रसिद्ध होनेपर भी यही खेदकी बात है कि जो विशिष्ट पराक्रमी और विद्वान् हैं वे भी उक्त राजा लोगोंकी दासताको प्राप्त होते हैं-- सेवा करते हैं ।। विशेषार्थ -- यह सब ही जानते हैं कि राजा, महाराजा चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर आदि जितने भी महापुरुष होते हैं वे सब पूर्वोपार्जित पुण्य के प्रभावसे ही होते हैं । फिर खेदकी बात तो यही है कि अनेक पराक्रमी एवं विद्वान् भी ऐसे हैं जो कि उक्त पुण्यके ऊपर विश्वास न करके लक्ष्मीकी इच्छासे उन राजा आदिकी ही सेवा करते हैं । वे यदि पुण्यके ऊपर विश्वास रखकर उसका उपार्जन करते तो उन्हें राजा आर्दिकी सेवा न करनेपर भी वह लक्ष्मी स्वयमेव प्राप्त हो जाती। इसके विपरीत पुण्योपार्जन के विना कितनी भी वे राजा आदिकी सेवा क्यों न करें, किन्तु उन्हें वह यथेष्ट लक्ष्मी कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती है ।। ९५ ।। जो पर्वत बडे बडे वांसोंको धारण करते हैं, जिनका अन्त
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