Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-२१७]
तपोऽनुष्ठाचे विवेकः कारणम्
क्षणार्धमपि देहेन साहचर्य सहेत .कः। यदि प्रकोष्ठमादाय न स्याद्वोधरे निरोधकः ॥११७॥
कालमपि। साहचर्य सहभावः प्रकोष्ठं हस्तप्रोच्चकप्रदेश: । अत्र तुप्रकोष्ठमन्तस्तत्त्वम्। तदादाय अवलम्ब्य आत्मस्वरूपं पश्य किं शरीरं चिन्तयेदिति बोध: शिक्षयतीत्यर्थः । निरोधक: धारकः।।११७।।अमुमेवार्थे दृष्टान्तद्वारेण समर्थयमानः समस्तमित्यादिश्लोक
हैं कि इस मनुष्यशरीरसे हमें अपना प्रयोजन (मुक्ति) सिद्ध करना है, हमने यदि इसकी रक्षा न की तो यह असमयमें ही नष्ट हो जावेगा और तब ऐसी अवस्थामें हम उससे अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकेंगे। इसका भी कारण यह है कि यदि यह मनुष्य पर्याय यों ही नष्ट हो गई तो फिर देवादि किसी दूसरी गतिमें तपका आचरण संभव नहीं है और वह मनुष्य पर्याय कुछ बार बार प्राप्त होती नहीं है। इस प्रकारकी विवेकबुद्धिके रहनेसे ही साधुजन उस शरीरका रक्षण करते हैं, अन्यथा वे उसकी रक्षा न भी करते । हां, यह अवश्य है कि वह शरीर किसी असाध्य रोगादिसे आक्रांत होकर यदि अभीष्टकी सिद्धि में ही बाधक बन जाता है तो फिर वे उसकी रक्षा नहीं करते हैं, बल्कि उसे सल्लेखनापूर्वक छोडकर धर्मकी ही रक्षा करते हैं ॥११६॥ यदि ज्ञान पोंचे (हथेलीके उपरका भाग) को ग्रहण करके रोकनेवाले न होता तो कौन-सा विवेकी जीव उस शरीरके साथ आधे क्षणके लिये भी रहना सहन करता? अर्थात् नहीं करता ॥ विशेषार्थ-बाणी जो अनेक प्रकारके दुखोंको सहता है वह केवल शरीरके ही संबंधसे सहता है, इसीलिये कोई भी विवेकी जीव क्षणभर भी उसके साथ नहीं रहना चाहता है । फिर भी जो वह उसके साथ रहता है, इसका कारण उसका उपर्युक्त (अभीष्ट प्रयोजनकी सिद्धिविषयक) विचार ही है ॥११७॥ जिन ऋषभ देवने समस्त राज्य-वैभवको तृणके समान तुच्छ समझकर छोड
1 प प्राञ्चक0, स प्रोञ्चक०।