Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ श्लो० ५०
आत्मानुशासनम्
जन्तो कि तव शान्तिरस्ति न भवान् यावद् दुराशामिमामंहः संहतिवीरवैरिपृतनाश्रीवैजयन्तीं हरेत् ॥ ५० ॥ भक्त्वा भाविभवांश्च भोगिविषमात् भोगान् वुभुक्षुर्भृशं मृत्वापि स्वयमस्तमीतिकः सर्वाजिघांर्मुधा ।
पूर्व कदाचिद्यतत् अप्राप्तपूर्वम् । किं कुर्वन् | अविकुत्सयन् धिक् विषयिणाम् उत्सृष्टमिदम् इत्येवं निन्दयन् । शान्तिः रागाद्युपशमः परमसुखं निर्वाणं वा । दुराशां दुष्टाम् आशाम् । इमां स्त्र्यादिविषयाम् । कथंभूतामित्याह -- अंह इत्यादि । अंहांसि पापानि तेषां संहतिः संघातः सैव वीरवैरिपृतना सुभटशत्रु सेना तस्याः श्रीवैजयन्तीं पताकाम् । हरेत् स्फेटयेत् ॥ ५० ॥ तामहुरन् भवान् अपरमपि किं कर्तुमिच्छतीत्याह-- भवेत्यादि भाविभवांश्च स्वर्गादिपरलोकानपि । च शब्दोऽप्यर्थे । कथंभूतान् । भोगिविषमान् भोगिनां व्यसनिनां विषमान्
प्राप्त हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है ।। विशेषार्थ - जिस प्रकार युद्धभूमिनें जब तक शत्रुसेनाकी ध्वजा फहराती रहती है तबतक शूर-वीरोंको शान्ति नहीं मिलती है- तबतक वे उस ध्वजाको गिरानेके लिये भीषण रण में ही उयुक्त रहते हैं। इस प्रकार जब वे उस शत्रुकी ध्वजाको छिन्नभिन्न कर डालते हैं तब ही उन्हें अभूतपूर्व आनन्दका अनुभव होता है। ठीक उसी प्रकारसे यह प्राणी भी जबतक शत्रु सेनाकी ध्वजाके समान उस दुष्ट विषयवासनाको नष्ट नहीं कर देता है तबतक शान्ति (सन्तोष) को प्राप्त नहीं होता-- वह उन विषयोंको प्राप्त करनेके लिये नाना प्रकारके कष्टोंको ही सहता है । किन्तु जैसे ही वह विवेकको प्राप्त होकर उक्त विषयतृष्णाको नष्ट कर देता है वैसे ही उसे अनुपम शान्तिका अनुभव होने लगता है । इससे यह निश्चित है कि सुखका कारण अभीष्ट विषयोंकी प्राप्ति नहीं है, किन्तु उनका परित्याग ही है ॥ ५० ॥ जो स्वर्गादिरूप आगामी भव भोगी जनोंके लिये विषम हैं, अर्थात् जो विषयी जनों को कभी नहीं प्राप्त हो सकते हैं, उनको कष्ट करके जो अज्ञानी प्राणी सर्पके समान भयंकर उन भोगोंके भोगनेकी अतिशय इच्छा करता है वह भय और दयासे रहित होकर स्वयं मर