Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
४८
आत्मानुशासनम् ......
[श्लो० ४१
आयातोऽस्यतिदूरमङग परवानाशासरित्प्रेरितः कि नावैषि ननु (वमेव नितरामेनां तरीतुं क्षमः ।
इति दर्श पन्नाह-आयातोऽसीत्यादि । अङा अहो । परवान् कर्माधीनः । एनाम् आशासरितम् । क्षमः समर्थः । स्व तंत्र्यम् ओदासीन्यं निहिताम् । दुरन्तेत्यादि । दुष्ट: अन्त: सामीप्यं यत्र दुःवेन वा अन्तो अबसानो यस्य स चासो
होते हैं, फिर यदि पुण्यके उदयसे कुछ प्राप्त भी हुए तो वे चिरस्थायी नहीं हैं--किसी न किसी प्रकार उनका वियोग अवश्य होनेवाला है। अतएव हे भव्यजीव ! उन अस्थिर बाह्य पदार्थोमें राग-द्वेष न करके तू अहिंसा आदि सव्रतोंका आवरण करता हुआ स्थिर व निराबाध आत्मीक सुखको प्राप्त करनेका प्रयत्न कर । यदि तूने ऐसा न किया और इस बीच मृत्युका ग्रास बन गया तो फिर यह जो आत्महितकी साधक सामग्री (मनुष्यभव आदि) तुझे सौभाग्यसे प्राप्त हो गई है वह दुर्लभ हो जावेगी ॥ ४८ ॥ हे भव्य ! तू पराधीन बनकर तृष्णारूपी नदीसे प्रेरित होता हुआ बहुत दूर आ गया है। क्या तू यह नहीं जानता है कि निश्चयसे इस तृष्णारूप नदीको पार करनेके लिये तू ही अतिशय समर्थ है ? अतएव तू स्वतन्त्रताका अनुभव कर जिससे कि शीघ्र ही उस तृष्णानदीके किनारे जा पहुंचे । यदि तू ऐसा नहीं करता है तो फिर उस विषयतृष्णारूप नदीके प्रवाहमें बहकर दुर्दम यमरूप मगरके खुले हुए गम्भीर मुखसे भयानक ऐसे संसाररूप समुद्रके मध्यमें जा पहुंचेगा । विशेषार्थ- जिस प्रकार कोई मनुष्य यदि नदीके प्रवाहमें पड़ जाता है तो वह दूर तक बहता हुआ चला जाता है । ऐसी अवस्थामें यदि वह अपने तैरनेके सामर्थ्यका अनुभव करके उसे पार करनेका प्रयत्न करे तो वह निश्चित ही उससे पार हो सकता है। परन्तु यदि वह व्याकुल होकर अपनी तैरनेकी कलाका स्मरण नहीं करता है तो फिर वह उसके साथ बहता आ उस भयानक अपार समुद्रके बीचमें जा पहुंचेगा जहां उसे खानेके