Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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निरवद्यवृत्यार्थोपार्जनस्यासंभवत्वम्
शुद्धैर्धनैविवर्धन्ते सतामपि न संपदः ।
न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्गाः कदाचिदपि सिन्धवः ॥ ४५ ॥ स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नापुखम् । तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गतिर्यत्र नागतिः ॥ ४६ ॥
४५
ननु निरवद्यवृत्त्या अर्थोपार्जनं कृत्वा संपदां वृद्धि विधान सुखानुभवनं करिष्यामीति चदन्तं प्रत्याह-शुद्धैरित्यादि । शुद्ध निरवद्यैः । स्वच्छाम्बुभि: निर्मलजलै: । सिन्धवः नद्यः ||४५ || अस्तु नाम यथाकथंचित्तासां वृद्धिस्तथापि धर्मसुखज्ञानसुगतिसाधनत्वमस्तीति मन्यमानं प्राह स धर्म इत्यादिपत्र यस्मिन् सति । अनेन यथाख्यातचारित्रस्यैव धर्मत्वम् अनन्तसुखस्यैवा (व) सुखत्वं केवलज्ञानस्यैव ज्ञानत्वं मोक्षगतेरेव गतित्वमुक्तं भवति ॥ ४६ ॥ इत्थंभूतं सुखादिकं कष्टसाध्यम् अर्थोपार्जनं तु सुखसाध्यमतस्तत्रैव प्रवृत्ति
सरल उपाय यही है कि पूर्व पुण्यसे प्राप्त हुई सामग्रीमें संतोष रखकर भविष्य के लिये पवित्र आचरण करे । कारण यह कि सुखका हेतु एक धर्माचरण ही है, न कि केवल ( दैवनिरपेक्ष) पुरुषार्थ ||४४|| शुद्ध धनके द्वारा सज्जनोंकी भी सम्पत्तियां विशेष नहीं बढती हैं ! ठीक है-नदियां शुद्ध जलसे कभी भी परिपूर्ण नहीं होती हैं ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार नदियां कभी आकाशसे वरसते हुए शुद्ध जलसे परिपूर्ण नहीं होती हैं, किन्तु वे इधर उधरको गंदी नालियों आदिके बहते हुए जलसे ही परिपूर्ण होती हैं; उसी प्रकार सम्पत्तियां भी कभी किसीके न्यायोपार्जित धनके द्वारा नहीं बढती हैं, किन्तु वे असत्यभाषण, मायाचार एवं चोरी आदिके द्वारा अन्य प्राणियोंको पीडित करनेपर ही वृद्धिको प्राप्त होती हुई देखी जाती हैं । इससे यहां यह सूचित किया गया है कि जो सज्जन मनुष्य यह सोचते हैं कि न्यायमार्गसे धन-सम्पत्तिको बढाकर उससे सुखका अनुभव करेंगे उनका वह विचार योग्य नहीं है ||४५ || धर्म वह है जिसके होनेपर अधर्म न हो, सुख वह है जिसके होने पर दुख न हो, ज्ञान वह है जिसके होनेपर अज्ञान न रहे, तथा गति वह है जिसके होनेपर आगमन न हो । विशेषार्थ--जो प्राणी यह विचार करते हैं कि भले ही सम्पत्ति न्याय अथवा अन्याय्य मार्गसे क्यों न प्राप्त होत्रे, फिर भी उससे धर्म, सुख, ज्ञान और शुभ गतिकी तो सिद्धि होती