Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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सम्यग्दर्शनस्य दश भेदाः
वचनान्यन्तरेण अङ्गबाहयप्रवचनश्रवणं विना द्वादशाङ्गविद: विशिष्टक्षयोपशमवशात् संजाता अर्थदृष्टिरुच्यते । साङ्गेत्यादि । सह अङ्गवर्तते इति साङ्गं तच्च तत् अङ्गबाहय (प्र) वचनं च । तदवगाहय ज्ञात्वा । उत्थिता उत्पन्ना ॥१४॥ ननु चतुर्विधारापनासु मध्ये सम्यक्त्वाराधना प्रथमत: कस्माद्विधीयते इत्याह--
चूंकि सर्वज्ञ और वीतराग (राग-द्वेषरहित) हैं अतएव वे अन्यथा उपदेश नहीं दे सकते हैं, उन्होंने जो तत्त्वका स्वरूप बतलाया है वह सर्वथा ठीक है । दूसरे मार्गसम्यग्दर्शनमें भी जीवके आगमका अभ्यास नहीं होता । वह केवल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रस्वरूप मोक्षमार्गको कल्याणकारी समझकर उसपर श्रद्धान करता है। तीसरे उपदेशसम्यग्दर्शनमें प्राणी प्रथमानुयोगमें वर्णित तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायग एवं बलभद्र आदि महापुरुषोंके चारित्रको सुनकर
और उससे पुण्य-पापके फलको विचारकर तत्त्वश्रद्धान करता है । चौथे सूत्रसम्यग्दर्शनमें जीव चरणानुयोगमें वर्णित मुनियोंके चारित्रको सुनकर तत्त्वरूचिको उत्पन्न करता है । पांचवें बीजसम्यग्दर्शनमें करणानुयोगसे सम्बद्ध गणित आदिकी प्रधानतासे वर्णित जिन दुर्गम तत्त्वोंका ज्ञान सर्वसाधारणके लिये दुर्लभ होता है उसे जीव किन्हीं बीजपदोंके निमित्तसे प्राप्त करके तत्त्वश्रद्धान करता है । छठे संक्षेपसम्यग्दर्शनमें द्रव्यानुयोगमें वर्कको प्रधानतासे वर्णित जीवा-जीवादि पदार्थोंको संक्षेपसे जानकर प्राणी तत्त्वरुचिको प्राप्त होता है। सातवे विस्तारसम्यग्दर्शनमें जीव द्वादशांगश्रुतको सुनकर तत्त्वश्रद्धानी बनता है । आठवें अर्थसम्यग्दर्शनमें विशिष्ट क्षयोपशमसे सम्पन्न जीव श्रुतके सुननेके विनाही उसमें प्ररूपित किसी अर्थविशेषसे तत्वश्रद्धानी होता है । नौवें अवगाढसम्यग्दर्शनमें अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य दोनों ही प्रकारके श्रुतको ज्ञात करके जीव. दृढश्रद्धानी बनता है। यह सम्यग्दर्शन श्रुतकेवलीके होता है । अन्तिम परमावगाढसम्यग्दर्शन सचराचर विश्वको प्रत्यक्ष देखनेवाले केवली भगवान्के होता है॥१४॥ पुरुषके सम्यक्त्वसे रहित शान्ति, ज्ञान, चारित्र
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