Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
२७
-२८] मृगयादीनां सुखाहेतुत्वम्
अप्येतन्मृगयादिकं यदि तव प्रत्यक्षदुःखास्पदं पापराचरितं पुरातिमयदं सौख्याय संकल्पतः ।
धर्मवत्सुखहेतुत्वप्रसिद्धः कथं तद्धेतुघातकारम्भात्पापं स्यात्, पापहेतोः सुखहेतुत्वाविरोधात् इत्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह- अन्येतदि:यादि। अपि शब्द: प्रत्येकमभिसंबन्धनीयः । एतत्सरिदृश्यमानं भृगयादिकमपि । मृगया पापद्धिः । आदिशब्दादनृतचौर्यादिग्रहणम्। किविशिष्टं तत् । प्रत्यक्षदुःखास्पदमपि प्रत्यक्षतः प्रतीयमानानां तन्निमित्तदुःखानाम्
नहीं होता, किन्तु वह उस सुखकी प्राप्तिके निमित्त अन्याय्य आचरण करनेसे- जैसे प्राणिहत्या, असत्यभाषग, चोरी, परस्री या वेश्याका सेवन अयवा अत्यासक्तिसे स्वस्रोका भी सेवन और तृष्णाको अधिकता आदिसे- होता है। यदि प्रागी पूर्वकृत धर्मके प्रभावसे प्राप्त हुई सामग्रीमें ही सन्तोष रखकर धर्मका घात न करता हुआ अनासक्तिपूर्वक उस विषयसुखका अनुभव करता है तो इससे वह पापसे विशेष लिप्त नहीं होता है । इसके लिये असाधारण वैभवका उपभोग करनेवाले भरत चक्रवर्ती आदिके उदाहरण भी पुराणोंमें देखे ही जाते हैं। यही तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके आचरणमें भेद है । कारण कि चारित्रमोहके उदयसे इन्द्रिजन्य सुखके भोगनेमें वे दोनों ही समानरूपसे प्रवृत्त होते हैं, फिर भी विशेषता उनमें यही है कि एक (सम्यग्दृष्टि) तो हेय-उपादेयके विवेकपूर्वक उसमें अनासक्तिसे प्रवृत्त होता है जब कि दूसरा उक्त विवेकको छोडकर अत्यासक्तिके साथ ही उसमें प्रवृत्त होता है। इसलिए यह नहीं समझना चाहिये कि विषयसुखका अनुभव करते हुए प्राणीके केवल पाप ही होता है और धर्म नहीं होता ॥ २७ ॥ हे भव्य जीव ! जो शिकार आदि व्यसन प्रत्यक्षमें ही दुखके स्थानभूत हैं, जिनमें पापी जीव ही प्रवृत्त होते हैं, तथा जो परभवमें दुखदायक होनेसे अतिशय भयानक हैं; वे भी यदि संकल्प मात्रसे तेरे सुखके लिये हो सकते हैं तो फिर विवेकी जन इन्द्रियसुखको न छोडकर जिस धर्मयुक्त आचरणको