Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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३.८
[ श्लो० ३८
आत्मानुशासनम्
आज्ञातं करणैर्मनः प्रणिधिभिः पित्तज्वराविष्टवत् कष्टं रागरसः सुधीरस्वमपि सन् व्यत्यासितास्वादनः ॥ ३८ ॥ अनिवृत्तेर्जगत्सर्वं मुखादवशिनष्टियत् । तत्तस्याशक्तितो भोक्तुं वितनोर्भानुसोमवत् ॥ ३९॥
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सता । यान् विषयान् । अन्वेष्टुं वाञ्छितुम् । अलम् अशुचि कृतम् । येन आस्वादेन कृत्वा कारणेन वा । अभिमानामृतम् अभिमान एक अमृतम् । आ ज्ञातं निश्चितं मया । व्यत्यासितास्वादन: विपरीतकृतास्वादन: त्वम् । सुधीः अपि सन् इति कष्टं निन्द्यमेतत् । किंक्त् । पित्तज्वराविष्टवत् पित्तज्वरागृहीतवत् । कैः व्क्त्यासितास्वादनः । करणैः । किविशिष्टैः । मनः प्रणिधिभिः मनः प्रणिधिः दूतो येषां मनसो वा प्रणिधः । या रागरसैः विश्वविषयेषु रागरसो येषाम् । ३८ ॥ विषयासक्तस्य भवतः क्वचिदपि अनिवृत्त वेतसः भक्षितुमसामर्थ्यादेव किंचिदुद्रियते इति आह — अनिवृत्तेरित्यादि । अनिवृत्तेः क्वचिदपि विषये हिंसादिनिवृत्तिरहितस्य तव । अवशिनष्टि उद्रियते । तस्य अनिवृत्तिपरिणतस्य तव । वितनोः राहोः ।। ३९ ।। दैवात् सकरुणचेतसा मोक्षलक्ष्मीप्रार्थितया हिंसानिवृत्तिमिच्छता विद्वान् होकर भी पित्तज्वर से पीडित मनुष्यकी तरह मनकी दूती के समान होकर विषयों में आनन्द माननेवाली इन्द्रियोंके द्वारा विपरीत स्वादवाला कर दिया गया है । विशेषार्थ - जिस प्रकार विषके भक्षणसे प्राणीको संताप आदि उत्पन्न होता है उसी प्रकार उन विषयों के उपभोग से भी प्राणको संताप आदि उत्पन्न होता है । अतएव वे विषय विषके ही समान हैं । फिर भी प्राणी उन्हें सुखके कारणभूत एवं स्थायी मानकर उनको प्राप्त करनेके लिये जो अयोग्य आचरण करता हुआ आत्मप्रतिष्ठा को भी नष्ट कर डालता है उसका कारण यह है कि जिस प्रकार पित्तज्वर से युक्त पुरुषको जीमका स्वाद विपरीत हो जाता है, जिससे कि उसे मधुर दूध भी कडुआ प्रतिभासित होने लगता है, ठीक उसी प्रकार मनसे प्रेरित होकर विषयोंमें अनुरक्त हुई इन्द्रियोंके दास बने हुए इस संसारी प्राणीको भी मोहवश विषतुल्य उन विषयोंके भोगने में आनन्दका अनुभव होता है तथा विषयनिवृत्तिरूप जो निराकुल सुख है वह . उसे कडुआ प्रतीत होता है ||३८|| तृष्णा की निवृत्तिसे रहित अर्थात् अधिक तृष्णासे युक्त होकर भी तेरे मुखसे जो सब जगत् अवशिष्ट बचा है वह तेरी भोगने की शक्ति न रहनेसे ही शेष रहा है। जैसे- राहुके