Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम् .. .. [श्लो० ३५अन्धादयं महानन्धो विषयान्धीकृतेक्षणः । चक्षषान्धो न जानाति विषयान्धो न केनचित् ॥ ३५॥ आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वथा वो विषयषिता ॥३६॥
प्रवृत्तौ कारणमाह-- अन्धादित्यादि। विषयान्धीकृतेक्षणः अनन्धानि अन्धानि कृतानि अन्धीकृतानि, विषयै अन्धीकृतानि ईक्षणानि इन्द्रियाणि यस्य ॥ ३५ ॥ किंचित् (किं च ) विषयवाञ्छया कृते प्रवृत्तिः, तद्वाञ्छा च प्रतिप्राणि विद्यते, अत: कस्य वाञ्छितसिद्धिः स्यात् इत्याह- -- आशेत्यादि । आशा एव गर्तः आशागतः । यस्मिन् आशागते । विश्वं जगत् । अणूपमं परमाणुतुल्यम् । कस्येत्यादि । कस्य आशावतः । किं जगत् । कियत् कियत्परिमाणम् । विभागेन वंद्य (वट्रय ) मानम् । आयाति । अतः वृथा। व: युप्माकम् । विषयषिता विषयाभिलाषित्वम् ॥३६॥ अत: एवं विषयसुखं विहाय विशिष्टपुण्योपार्जनार्थम् लोकप्रसिद्ध अन्धेसे भी अधिक अन्धा है, क्योंकि अन्धा प्राणी तो वे वल चक्षुके ही द्वारा नहीं जान पाता है, परन्तु वह विषयान्ध मनुष्य इन्द्रियों और मन आदिमेंसे किसीके द्वारा भी वस्तुस्वरूपको नहीं जान पाता है ॥ ३५ ॥ आशारूप वह गड्ढा प्रत्येक प्राणीके भीतर स्थित है जिसमें कि विश्व परमाणुके बराबर प्रतीत होता है । फिर उसमें किसके लिये क्या और कितना आ सकता है ? अर्थात् प्रायः नहींके समान ही कुछ आ सकता है। अतएव हे भव्यजीवो! तुम्हारी उन विषयोंकी अभिलाषा व्यर्थ है। विशेषार्थ-- अभिप्राय इसका यह है कि प्रत्येक प्राणीकी तृष्णा इतनी अधिक बढी हुई है कि समस्त विश्वकी सम्पत्ति भी यदि उसे प्राप्त हो जाय तो भी उसकी वह तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती है। फिर भला जरा विचार तो कीजिये कि प्राणी तो अनन्त हैं और उनमें से प्रत्येककी विषयतृष्णा उसी प्रकारसे वृद्धिंगत है। ऐसी अवस्थामें यदि विश्वको समस्त सम्पत्तिको भी उनमें विभाजित किया जाय तो उसमेंसे प्रत्येक प्राणीके लिये जो कुछ प्राप्त हो सकता है वह नगण्य ही होगा। अतएव यहां यह उपदेश दिया गया