Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
[इलो०. २७
न सुखानुभवात् पापं पापं तद्धेतुघातकारम्भात् । नाजोणं मिष्टान्नान्ननु तन्मात्राद्यतिक्रमणात् ॥२७॥
पापोपार्जनसंभवात्कयं धर्मः स्यात् इत्याशक्य आह-- न सुखानुभवादित्यादि । तद्धतुघातकारम्भात् तस्य धर्मस्य हेतवौजसादयस्तेषां धातकस्य विनाशकस्य जीववधादेरारम्भात् हिमाद्यावेशकरणात् । तन्मात्राद्यतिक्रम गात् तस्य भोजनस्य मात्राद्यतिक्रमोऽतिमात्रस्य वेलातिक्रमयुक्तस्य प्रकृत्यवस्थाविरुद्धस्य चाहारस्य ग्रहण तस्मात् । नो चेन्नित्यभोजनमात्रादधिकात् । २७।। ननु हिंसादिकर्मणः पापद्धिक्रीडादे
है। इसलिये इस विश्वकी रक्षा उस धर्मके रहने पर ही हो सकती है। विशेषार्थ-धर्मका स्वरूप दया है। वह धर्म जिसके हृदयमें स्थित रहता है वह दूसरोंकी तो बात ही क्या है, किन्तु अपने घातकका भी अनिष्ट नहीं करता है । जैसे- यदि कोई दुष्ट जन किसी अहिंसा महाव्रतके धारक साधुके लिये गाली देता है या प्राणहरण भी करता है तो भी वह अपने उस घातकका प्रतीकार नहीं करता, प्रत्युत इसके विपरीत वह उसके हितका ही चिन्तन करता है। वह सोचता है कि यह बिचारा अज्ञानी प्राणी अज्ञानवश कुमार्गमें प्रवृत्त हो रहा है, वह कब कुमार्गको छोडकर . सन्मार्गमें प्रवृत्त होगा, आदि। इसके विपरीत जिसके हृदयमें वह दयामय धर्म नहीं रहता है वह औरकी तो बात क्या, किन्तु अपने पिता और पुत्रका भी घात कर डालता है। ऐसे उदाहरण देखने व सुनने में जब तब आते ही रहते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि विश्वका कल्याण करनेवाला यदि कोई है तो वह एक धर्म ही हो सकता है ॥ २६ ।। पाप सुखके अनुभवसे नहीं होता है, किन्तु वह उपर्युक्त धर्मके हेतुभूत अहिंसा आदिको नष्ट करनेवाले प्राणिवधादिके आरम्भसे होता है । ठीक ही है- अजीर्ण कुछ मिष्टान्नके खानेसे नहीं होता है, किन्तु वह निश्चय से उसके प्रमाणके अतिक्रमणसे ही होता है ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार स्वादके निमित्त परिमित मिष्टान्न आदिके खानेसे कभी अजीर्ण नहीं होता, किन्तु वह जिव्हालम्पट होकर उसे अधिक प्रमाणमें खानेपर ही- होता है; उसी प्रकार विषयसुखके अनुभव मात्रसे कुछ पाप