Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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दैवस्य प्रधानत्वम्
समझने में समर्थ होते हैं, और कुछ प्रयत्न करते हुए भी उसे ग्रहण करनेमें असमर्थ ही रहते हैं । इसी प्रकार उनके परीक्षा में बैठने पर जिनके प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण होने की आशा की जाती थी वे अनुत्तीर्ण होते हुए देखे जाते हैं तथा जिनके उत्तीर्ण होनेकी सम्भावना नहीं थी वे उत्तम श्रेणीमें उत्तीर्ण होते हुए देखे जाते हैं । इससे निश्चित होता है कि अकेला पुरुषार्थ ही कार्यकारी नहीं है, अन्यथा किया गया पुरुषार्थ कभी निष्फल ही नहीं होना चाहिये था । इसी तरह जिस प्रकार केवल पुरुषार्थसे कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती है उसी प्रकार केवल दैवसे भी कार्यकी सिद्धि सम्भव नहीं है । कारण यह कि यदि सर्वथा दैवको ही कार्यसाधक स्वीकार किया जाय तो यह शंका होती है कि वह दैव भी उत्पन्न कैसे हुआ ? यदि वह दैव पूर्व पुरुषार्थके द्वारा निष्पन्न हुआ है तब तो सर्वथा देवकी प्रधानता नहीं रहती है, और यदि वह भी अन्य पूर्व दैवके निमित्तसे आविर्भूत हुआ है तो फिर वैसी अवस्था में दैवकी परम्पराके चलते रहने से कभी मोक्षकी भी सिद्धि नहीं हो सकेगी । इसलिये मोक्षके निमित्त किया जानेवाला प्रयत्न निष्फल ही सिद्ध होगा । अतएव जब उन दोनोंमें अन्यको उपेक्षा करके किसी एक (दैव या पुरुषार्थ ) के द्वारा कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है तब यहां ऐसा निश्चय करना चाहिये कि प्रत्येक कार्यकी सिद्धिमें वे दोनों ही कारग होते । हां, यह अवश्य है कि उनमेंसे यदि कहीं दैवको प्रधानता और पुरुषार्थकी गौणता भी होती है तो कहीं पुरुषार्थकी प्रधानता और दैवकी गोणता भी होती है । जैसे कि स्वामी समन्तभद्राचार्यने कहा भी है— अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् । ।। आ. मी. ९१ अभिप्राय इसका यह है कि पूर्व में वैसा कुछ विचार न करनेपर भी जब कभी अकस्मात् ही इष्ट अथवा अनिष्ट घटना घटती है, तब उसमें दैवको प्रधान और पुरुषार्थको गौण समझना चाहिये । जैसे- अकस्मात् भूमिके खोदने आदिमें धनकी प्राप्ति अथवा यात्रा करते हुए किसी दुर्घटनामें मरणकी
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