Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ श्लो० २
आत्मानुशासनम्
दुःखाद्विभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् । दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥ २ ॥
यतो वीरोज्तो लक्ष्मीनिवासस्थानम् । पुनरपि कथंभूतम् । विलीनविलयं विलीनों विनष्टो विलयो लब्धानन्तचतुष्टय स्वरूपात्प्रच्युतिर्यस्य । किमर्थ वक्ष्ये । मोक्षाय सकलकर्मविप्रमोचनाय । केषाम् । भव्यानां सम्यग्दर्शनादिसामग्री प्राप्य अनन्त चतुष्टय रूपतया भवनयोग्यानाम् ॥ १ ॥ शास्त्राभिधेये विनेयानां भयमुत्सार्य प्रवृत्त्यङगतामुपदर्शयन् दुःखादित्याह - नितराम् अत्यर्थम् । अतः यतो दुःखाद् बिभेषि सुखं च अभिवाञ्छसि अतः | अहम् अपि । हे आत्मन् । तवानुमतम् एवं तत्र अभिमतम् एव । अनुशास्मि प्रतिपादयामि । कुतोऽनुमतम् एवम् ।
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है, साथ ही उससे समस्त तीर्थंकर समूहका भी बोध होता है । यथा—' विशिष्टाम् ईं राति इति वीरः तं वीरम् ' इस निरुक्ति के अनुसार यहां वीर ( वि-ई-र ) पदमें स्थित 'वि' उपसर्ग का अर्थ विशिष्ट ' है, ई शब्दका अर्थ है लक्ष्मी, तथा र का अर्थ देनेवाला है । इस प्रकार समुदायरूपमें उसका यह अर्थ होता है कि जो विशिष्ट अर्थात् अन्यमें न पायी जानेवाली समवसरणादिरूप बाह्य एवं अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरंग लक्ष्मीको देनेवाला है वह वीर कहा जाता है । इस प्रकार चूंकि अन्तरंग और बहिरंग दोनों ही प्रकारकी लक्ष्मीसे सम्पन्न सब ही तीर्थंकर अपने दिव्य उपदेशके द्वारा भव्य जीवोंके लिये विशिष्ट लक्ष्मीके देनेमें समर्थ होते हैं अतएव वीर शब्दसे यहां उन सबका ही ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार मंगलरूपमें श्री वर्धमान जिनेन्द्र अथवा समस्त ही तीर्थंकरसमुदायका ध्यान करके ग्रन्थकर्ताने इस ग्रन्थके रचनेका यह प्रयोजन भी प्रगट कर दिया है कि चूंकि सब ही प्राणी सुखको चाहते हैं और दुखसे डरते हैं अतएव मैं उन भव्य जीवोंके लिये इस ग्रन्थके द्वारा उस आत्मतत्त्वकी शिक्षा दूंगा कि जिसके निमित्तसे वे जन्ममरणके असह्य, दुखसे छूटकर अविनश्वर एवं निर्बाध सुखको प्राप्त कर सकेंगे ||१| हे आत्मन् ! तू दुखसे अत्यन्त डरता है और सुखकी इच्छा करता है, इसलिये मैं भी तेरे लिये अभीष्ट उसी तत्त्वका प्रतिपादन करता हू जो कि