Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
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श्लोक १८२ में कहा गया है कि जिस प्रकार बीजसे मल और अंकुर उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मोहरूप बीजसे राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं । इसीलिये जो उनको नष्ट करना चाहता है उस मोहबीजको ज्ञानरूप अग्निके द्वारा जला देना चाहिये। अब इसे मिलता-जुलता यह समाधि-शतकका श्लोक देखिये--
यदा मोहात् प्रजायते राग-द्वेषौ तपस्विनः । तथैव भावयेत् स्वस्थमात्मानं शा (सा)म्यतः क्षणात् ॥ ३९ ॥
श्लोक २३९-४० में बतल:या है कि शुभ, पुण्य और सुख ये तीन हितकारक होनेसे अनुष्ठेय तथा अशुभ, पाप और दुख ये तीन अहितकारक होनेसे हेय हैं । इन तीनों हेयोंमेंसे प्रथम अशुभका त्याग कर देने से शेष दो- पाप और दुख- स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि, वे दोनों उस अशुभके अविनाभावी हैं। अन्तमें फिर योगी शुद्धके निमित्त उस शुभको भी छोडकर परम पदको प्राप्त हो जाता है। यह भाव समाधिशतकके निम्न दो श्लोकोंमें व्यक्त किया गया है--
अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥ ८३ ।। अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः । त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः ॥ ८४ ॥
अर्थात् अव्रतोंसे- हिंसादिरूप अशुभ प्रवृत्तिसे- पाप तथा व्रतोंसे- अहिंसादिरूप शुभ आचरणसे- पुण्य होता है। उक्त दोनों (पाप-पुण्य) के अभावका नाम मोक्ष है। इसलिये मुमुक्षु जीवको अव्रतोंके समान व्रतोंको भी छोड देना चाहिये । वह अब्रतोंको छोडकर व्रतोंमें निष्ठित होवे और तत्पश्चात् अपने परम पदको प्राप्त होकर उन व्रतोंको भी छोड दे।
आत्मानुशासनपर श्वे. आगमोंका प्रभाव प्रस्तुत ग्रन्थके भीतर श्लोक १० में सम्यग्दर्शनके दो, तीन और दस भेदोंका निर्देश मात्र करके उसके गुण और दोषोंको दिखलाते हुए उसे संसारनाशक बतलाया गया है । इसके आगे श्लोक ११ में पूर्वनिर्दिष्ट