Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
८७
उन दस भेदोंका नामनिर्देश करके श्लोक १२-१४ द्वारा उनका पृथक् पृथक् स्वरूप भी बतलाया गया है । ये दस भेद आत्मानुशासन के पूर्ववर्ती दिगम्बर ग्रन्थोंमें कहां और किस प्रकारसे पाये जाते हैं, इसके खोजनेका मैंने यथासम्भव कुछ प्रयत्न किया है । परन्तु वे मुझे उपलब्ध नहीं हो सके । ये दस भेद लगभग इसी रूपसे 'पन्नवणासुत ' आदि आगम ग्रन्थोंमें अवश्य पाये जाते हैं । यथा-निसग्गुबएस रुई आणरुई सुत्त - बीयरुइमेव ।
अभिगम वित्थाररुई किरिया - संखेव धम्मरुई १ ।।
पन्नवणा १, ७४ (सुत्तागमे २, पृ. २८६ )
इस गाथा के अनुसार वे दस भेद ये हैं - निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि संक्षेपरुचि और धर्मरुचि ।
इस प्रकार आज्ञासम्यक्त्व, उपदेशसम्यक्त्व, सूत्रसम्यक्त्व, बीजसम्यक्त्व, संक्षेपसम्यक्त्व और विस्तारसम्यक्त्व ये छह सम्यक्त्वभेद तो दोनों ग्रन्थोंमें समानरूपसे पाये जाते हैं । किन्तु पन्त्रवणामें मार्गसम्यक्त्व, अर्थसम्यक्त्व, अवगाढसम्यक्त्व और परमावगाढसम्यक्त्व इन चार भेदोंके स्थान में निसर्गरुचि, अभिगमरुचि, क्रियारुचि और धर्मरुचि ये चार भेद पाये जाते हैं ।
श्रावकप्रज्ञप्तिमें भी कहा गया है कि इस सम्यक्त्वको उपाधिभेदसे दस प्रकारका भी आगममें बतलाया है । परन्तु सामान्यरूपसे वह दस प्रकारका भी सम्यक्त्व इन भेदोंसे - पूर्वोक्त औपशमादि भेदोंसे - अभिन्नस्वरूपं है२ ।
१. आत्मानुशासनमें रुचिके समानार्थक विरुचित, श्रद्धा, दृष्टि और उस रुचि शब्दका भी प्रयोग हुआ है ।
२. किं चेहवाहि मेया दसहावीमं परूवयं समए ।
ओहेण तपिस भेयाणमभिन्नरूवं तु ॥ श्रा. प्र. ५२. इसकी टीकामें श्री हरिभद्रसूरिने 'यथोक्तं प्रज्ञापनायाम्' लिखकर पद्मवणाकी उक्त गाथाको उद्धृत किया है ।