Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
उन्मीलत्त्रिवली तरंगनिलया प्रोत्तुङगपीनस्तनद्वन्द्वेनोद्गतचक्रवाकयुगला वक्त्राम्बुजोद्भासिनी । कान्ताकारधरा नदीयमभितः क्रूरात्र नापेक्ष्यते संसारार्णवमज्जनं यदि तदा दूरेण संत्यज्यताम् ||४९||
अर्थात् स्त्रीके आकारको धारण करनेवाली यह क्रूर नदी उत्तन होनेवाली त्रिवलीरूप तरंगोंसे सहित, स्तनोंरूप चक्रवाक पक्षियुगलसे संयुक्त और मुखरूप कमलसे शोभायमान है । इसलिये यदि संसाररूप समुद्र में निमग्न होनेकी इच्छा नहीं है तो उसे दूरसे ही छोड़ देना चाहिये
आगे १३०वें श्लोकमें बतलाया है कि दुष्ट इन्द्रियरूप शिकारियोंके द्वारा मनुष्यरूप मृगादिकों के निवासस्थानके चारों ओर प्रज्वलित की गई रागरूप अग्निसे संतप्त होकर ये मनुष्यरूप मृगरक्षाकी इच्छा से स्त्री मिषसे बनाये गये कामरूप व्याधके घातस्थानको प्राप्त होते हैं । इसके सदृश श्रृंगारशतकमें यह श्लोक उपलब्ध होता है-विस्तारितं मकरकेतनधींवरेण स्त्रीसंज्ञितं बडिरामत्र भवाम्बुराशौ । येनाचिरात्तदधरामिषलोलमर्त्य-मत्स्यान् विकृष्य विपचत्यनुरागवन्हौ । ५३ ।
इसका अभिप्राय यह है कि कामरूप धीवरने मनुष्योंरूप मत्स्योंको फंसाने के लिये इस संसाररूप समुद्रमें स्त्रीनामधारी कांटेको विस्तृत किया। उसके द्वारा वह स्त्रीरूप कांटेको अधरोष्ठरूप मांसखंडके लोलुपी मनुष्योंरूप मछलियोंको शीघ्र ही पकड़कर उन्हें अनुरागरूप अग्नि में पकाता है ।
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इन दोनों श्लोकों के तात्पर्यमें कोई भेद नहीं है । विशेषता यदि है तो वह इतनी हीं है कि जहां आत्मानुशासन में स्त्रीको कामरूप व्याधके द्वारा निर्मित मनुष्यरूप मृगोंका घातस्थान बतलाया गया हैं वहां श्रृंगारशतकमें उसे कामरूप धीवर के द्वारा विस्तारित ऐसा मनुष्यरूप मछलियोंको फसानेवाला कांटा बतलाया गया है ।
आत्मानुशासनके उपर्युक्त श्लोकमें इन्द्रियोंको रागरूप अग्निको जलाकर मनुष्योंको सन्तप्त करनेवाले शिकारियोंके समान बतलाया है । वे इन्द्रियां किस प्रकारसे रागको उत्पन्न करती हैं, इसके लिये श्रृंगारशतकका यह श्लोक - देखिये --