Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम् . ... श्री गुणभद्राचार्यने आत्मानुशासनके समान उत्तरपुराणमें भी इन दस सम्यक्त्वके भेदोंकी प्ररूपणा की है१ । इसके उतरकालीन ग्रन्थोंमें ये दस भेद प्राय: आत्मानुशासनके उक्त १० वें श्लोकको उद्धृत करके प्ररूपित हुए देखे जाते हैं२ ।
आत्मानुशासन और सुभाषितत्रिशती योगिराज श्री भर्तृहरिने सुभाषितरूपसे शतकत्रयकी रचना की है। इनमें प्रथम सौ श्लोकोंमें नीति, आगे सौ श्लोकोंमें शृंगार तथा अन्तिम सौ श्लोकोंमें वैराग्यका वर्णन किया है । रचना प्रौढ, अलंकारोंसे अलंकृत एवं आकर्षक है । आत्मानुशासनकी रचनामें श्री गुणभद्राचार्यने इसका उपयोग किया है, ऐसा ग्रन्थके अन्तःपरीक्षणसे प्रतीत होता है । यथा--
___ आत्मानुशासनम जो 'नेता यत्र३ बृहस्पतिः' इत्यादि श्लोक (३२) आया है वह तथा 'यदेतत् स्वच्छन्द' आदि श्लोक (६७) भी उपर्युक्त सुभाषितत्रिशतीमें (नी. श. ८१ और वै. श. ८२) जैसाका तैसा उपलब्ध होता है । इसके अतिरिक्त अन्य कितने ही श्लोकों में शब्द, अर्थ अथवा दोनोंसे भी समानता पायी जाती है । जैसे
श्लोक १२७ मे स्त्रीस्वभावका वर्णन करते हुए उन्हें सर्पसे भी भयानक बतलाया है । हेतु यह दिया है कि सर्प तो क्रुद्ध होकर किसी विशेष समयमें ही काटता है तथा उसके विषकी विनाशक औषधियां भी बहुत पायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त उसके काट लेनेपर एकमात्र इसी जन्ममें कष्ट होता है। परन्तु स्त्रियां क्रोध और प्रसन्नता दोनों ही अवस्थाओं
१. उत्तरपुराण ७४, ४३९-४९.
२. यशस्तिलक (उत्तर खण्ड) पृ. ३२३, श्रुतसागरसूरिविरचित तत्वार्थवृत्ति १-७.; एवं दर्शनप्रामृतटीका गा. १२.; पण्डितप्रवर श्री आशाधरजीने एक स्वतन्त्र श्लोकके द्वारा इन दस भेदोंका उल्लेख किया है
आज्ञा-मार्गोपदेशार्थ-बीज-संक्षेप-सूत्रजाः । विस्तारजावगाढासौ परमा वशति दृक् ॥ अ. घ. २, ६२. ३. नि. सा. द्वारा मुद्रित प्रथम गुच्छक, 'यस्य' पाठ है।