Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
संसारी जीव तीन भागोंरूप हैं । उनमें प्रथम भागरस- रुधिरादिरूप शरीर, द्वितीय भाग ज्ञानावरणादि कर्म तथा तृतीय भाग ज्ञानदर्शनादिरूप है । जबतक आत्मा इन तीन भागोंरूप रहता है तबतक उसके कर्मबन्ध होता रहता है । जो बुद्धिमान् इन तीन भागोंरूप आत्माको प्रथम दो भागों से- शरीर एवं ज्ञानावरणादि कर्मोंसे - पृथक करना जानता है वही वास्तव में तत्त्वज्ञ कहा जाता है (२१०-११) । कषायविजय
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उपर्युक्त दो भागों उस आत्माको पृथक् करनेके लिये तपश्चरकी आवश्यकता होती है । जिस प्रकार सुवर्गपाषाण तीव्र अग्नि के संयोगसे पाषाणस्वरूपको छोडकर कांतिमान् शुद्ध सुवर्णकी अवस्थाको प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार तपश्चरण व ध्यानके आश्रयसे भव्य जीव भी शीघ्र ही उस सप्तधातुमय शरीरको छोडकर परमात्माकी अवस्थाको पा लेता हैं ? । घोरतपश्चरणजन्य क्लेशको न सह सकने की अवस्था में यहां यह उपदेश दिया गया है कि जो जीव बहुत समय तक घोर तपश्चरणको नहीं कर सकता है उसे अपने मनको वश में करके कषायोंरूप शत्रुओंके ऊपर तो विजय प्राप्त करना ही चाहिये । कारण यह कि जिस प्रकार स्वच्छ जलसे परिपूर्ण भी किसी तालाब में यदि मगर-मत्स्यादि हिंस्र जलजन्तु विद्यमान हैं तो जनसमुदाय निःशंक होकर उसमें स्नान आदि नहीं कर सकता है, इसी प्रकार प्राणी के हृदयमें जबतक क्रोधादि कषायें स्थित हैं तबतक वहां क्षमा मार्दवादि उत्तम गुण नहीं रह सकते हैं । इसलिये उसे उन क्रोधादि कषायोंके जीतने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये (२१२-१३) |
दुष्परिहरे च पण्याविनाशो न यथा भवति तथा यतते । एवं गृहस्थोऽपि व्रत-शील-संचयप्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य शरीरस्य न पातमभिवाञ्छति, तदुब्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति, दुष्परिहरे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत् ? त.वा. ७, २२. १. ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानलाडुपलभावमपास्य लोके चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥ कल्याणमन्दिर १५.