Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
हो ही कैसे सकती है?? इस स्थितिके होनेपर भी मिथ्यादृिष्टि बहिरात्मा उस आत्मज्ञानसे विमुख होकर अपने शरीरको ही आत्मा मानता हैं-वह मुर्ख यदि आत्मा मनुष्यके शरीरमें स्थित है तो उसे मनुष्य, यदि तिर्यचके शरीरमें स्थित है तो तिर्यंच, यदि देवके शरीरमें स्थित हैं तो देव, तथा यदि वह नारको के शरीरमें स्थित है तो वह उसे नारकी मानता है। परंतु यथार्थमें वैसा नहीं है-तत्त्वतः वह उपर्युक्त चारों गतियोंसे रहित होकर अनन्तानन्त ज्ञानशक्तिका धारक स्वसंवेद्य व स्थिर स्वभाववाला है२ । इस प्रकार शरीरको ही आत्मा समझनेबाला वह बहिगत्मा पुनः पुनः उस शरीरसे ही संगत होता है । किन्तु इसके विपरीत जो विवेको अन्तरात्मा शरीरसे भिन्न आत्माको ही आत्मा मानता है वह विदेह हो जाता है-शरीरको छोडकर परमात्मा हो जाता है३ ।।
इस प्रकार जिस विवेकी साधुको यह दृढ श्रद्धान हो जाता है कि आत्मा और शरीर ये दोनों स्वरूपसे भिन्न हैं वह उस शरीरके रोगादिसे संयुक्त होनेपर भी कभी व्याकुल नहीं होता । हां, यह अवश्य है कि वह यथासंभव उस रोगादिका प्रतीकार तो करता है,परंतु जब वह अशक्यप्रतीकार हो जाता है तो वह उद्विग्न न होकर संयमके संरक्षणार्थ सल्लेखनापूर्वक उस शरीरको ही छोड देता है४ (२०७)। सो है भो यह ठीक-जब घर में आग लग जाती है तब उसमें रहनेवाला बुद्धिमान् मनुष्य प्रथम तो यथाशक्ति उस अग्निके बुझानेका ही प्रयत्न करता है, किन्तु जब उसका बुझना असम्भव हो जाता है तब फिर वह आत्मरक्षार्थ उस घरको ही छोड देता है५ (२०५)। १. यस्यास्ति नक्यं वपुषापि साधं तस्यास्ति कि पुत्र-कलत्रमित्रः । पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपाः कुतो हि तिष्ठिन्ति शरीरमध्ये ॥
द्वात्रिंशतिका २७. २. समाधि. ७-९. ३. समाधि ७४ ४. उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे ।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ र. श्रा. १२२. ५. मरणस्य अनिष्टत्वात्॥८॥ यथा वणिजः विविधपण्यादानादानसंचयपरस्य गृहविनाशोऽनिष्टः । तद्विनाशकारणे चोपस्थिते यथाशक्ति
परिहरति,