Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
उत्पन्न करते । इस प्रकार समस्त अर्थपरंपराका मूल कारण यह शरीर ही ठहरता है । अतएव इस शरीरको ही यथार्थ शत्रु समझकर जबतक वह नष्ट नहीं होता है तबतक उसका शत्रुके समान ही अनशनादिके द्वारा शोषण करना चाहिये, जब किसोका शत्रु उसके हाथ लग जाता है तो वह उसको भूख-प्यास आदिकी बाधा पहुंचाकर निर्बल करता है, इसी प्रकार शत्रुस्वरूप जब यह दुर्लभ मनुष्य शरीर हाथ लग गया है तब बुद्धिमान् मनुष्योंको अनशनादि तपोंका आचरण करके उसके द्वारा आत्मप्रयोजनको सिद्ध कर लेना चाहिये ( १९४-९५)। कारण यह है कि चारों गतियों में एक मनुष्यगति ही ऐसी है कि जहां तपश्चरण आदि द्वारा कर्मको निर्मूल करके मोक्षसुख को प्राप्त किया जा सकता है । यही कारण है जो इस शरीर के स्वभावतः अपवित्र होनेपर भी उसे रत्नत्रयकी प्राप्तिका कारण होनेसे अनुरागका विषय निर्दिष्ट किया गया है १ | अन्यथा वह प्रीतियोग्य सर्वथा नहीं है | शरीरका स्वभाव आत्म से सर्वथा भिन्न है - आत्मा जहां ज्ञान दर्शनका पिण्ड होकर चेतन है वहां वह शरीर उक्त ज्ञान-दर्शनसे रहित होकर जड है, आत्मा यदि रूप-रसादिसे रहित होकर अमूर्तिक है तो वह पुद्गलमय शरीर उक्त रूपादिसे सम्बद्ध होता हुआ मूर्तिक है, आत्मा जब स्वभावतः कर्ममलते निर्लिप्त होता हुआ कमलपत्र के समान निरंतर शुद्ध है तब वह शरीर मूल-मूत्र एवं रुधिरादिका स्थान होकर सदा ही अपवित्र रहता है, तथा आत्मा 1. जहां अस्त्र-शस्त्रादिसे कभी छेदा भेदा नहीं जा सकता है वहां वह शरीर उक्त अस्त्रादिसे छेदा भेदा भी जाता है ( २०२ ) । इस प्रकार जब वह शरीर आत्मासे सर्वथा भिन्न स्वभाववाला है तब उसकी एकता आत्मा के साथ कैसे हो सकती है ? और जब शरीरमें स्थित रहनेपर भी अक्त आत्माकी उस शरीरके साथ ही एकता सम्भव नहीं है तब फिर प्रत्यक्षमें ही उससे भिन्न दिखनेवाले पुत्र कलत्रादिके साथ तो उसकी एकता
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१. स्वभावतोऽशुचौ कार्य रत्नत्रयपवित्रिते ।
निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता । र श्रा. १३.