Book Title: Atmanushasanam
Author(s): Gunbhadrasuri, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मानुशासनम्
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संसारमें कोई भी वस्तु न कूरस्थ नित्य है, न प्रतिक्षण नष्ट होनेवाली है, न एक मात्र ज्ञानस्वरूप ही है, और न सर्वथा अभावस्वरूप भी है : क्योंकि, वैसा प्रतिभास नहीं होता है । किन्तु वह जैसे द्रव्यको अपेक्षा नित्य है- अपने त्रिकालवर्ती ध्रौव्य स्वभावको नहीं छोडती है, वैसे ही वह पर्यायकी प्रधानतासे अनित्य भी है- प्रतिक्षण नवीन नवीन अवस्थामें परिणत भी होती रहती है। इस प्रकारसे वह कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य भी है । जीवका अन्तिम ध्येय अविनश्वर मुक्तिसुखकी प्राप्ति है। इसके लिये उसका लक्ष्य सदा अन्य बाह्य पदार्थोंकी ओरसे विमुख होकर एक मात्र ज्ञायकस्वभाव आत्माकी ओर ही रहता है। इस अध्यात्म तत्त्वकी प्रधानतासे वस्तुतत्त्व ज्ञानमात्र ही है- उसको छोडकर तब अन्य कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता है । अतएव जगत्को ज्ञानमात्र कहा जाता है । किन्तु व्यवहारी जन ज्ञानके अतिरिक्त अन्य घट-पटादि पदार्थोंको प्रत्यक्ष देखते हैं और अपनी अपनी रुचिके अनुसार उनका निरन्तर उपयोग भी करते हैं। इस दष्टिसे यदि ज्ञानके अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थको स्वं कार न किया जाय तो इस दृश्यमान समस्त व्यवहारका ही लोप हो जावेगा। इसलिये यह मानना चाहिये कि वस्तु जहां अध्यात्मकी प्रधानतासे कथंचित् ज्ञानमात्र है वहींपर वह व्यवहारकी प्रधानतासे कथंचित् चेतनअचेतन आदि विभिन्न वस्तुओंरूप भी है । उपर्युक्त अध्यात्म तत्त्वके पराकाष्ठाको प्राप्त होनेपर जब निर्विकल्पक दशा प्रगट होती है तब योगीकी दृष्टिमें चेतन-अचेतन कोई भी पदार्थ नहीं रहता है । यहांतक कि उस अवस्थामें तो ज्ञान-दर्शन आदिका भी विकल्प नहीं रहता है । इस दृष्टिकी मुख्यतासे ही विश्वको अभावस्वरूप कहा जाता है। वस्तुतः वह व्यवहारकी मुख्यतासे घट-पटादि अनेक भावोंस्वरूप ही है । इस प्रकार वस्तु कथंचित् भावस्वरूप और कथंचित् अभावस्वरूप (शून्य) भी है । इससे सिद्ध है कि कि विवक्षाभेदके अनुसार वस्तु अनेक धर्मात्मक है, ६. हा जीव प्रताल देखी जाती है (१७१-७३) ।
इस प्रकारसे आगमके परिशीलनमें निमग्न हुआ भव्य जीव ऐसा विशद्ध हो जाता है जैसा कि अग्निमें पडा हआ मणि उसके तापसे विशद्ध